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शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 4,  अंक : 03-04,  नवम्बर-दिसम्बर  2014 

।।विमर्श।।

सामग्री :  डॉ. उमेश महादोषी का आलेख ‘स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श’।



डॉ. उमेश महादोषी

{यह आलेख सुप्रसिद्ध लघुकथाकार श्री भगीरथ जी द्वारा संपादित व श्री मधुदीप जी द्वारा संयोजित लघुकथा संकलन श्रंखला ‘पड़ाव और पड़ताल’ के खण्ड-4 में बतौर अग्रलेख  शामिल है।}
स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श
      लघुकथा के पक्ष-विपक्ष में दो घटनाओं, जिनसे मैं स्वयं रू-ब-रू हुआ, को साझा करना चाहूंगा। पहली घटना एक रेल-यात्रा के दौरान घटी। मैं अपनी पत्नी के साथ बरेली से रुड़की जा रहा था। हमारे सामने वाली वर्थ पर एक युवा महिला अपने पति व बच्चों के साथ जम्मू के लिए यात्रा कर रही थी। मैं उषा अग्रवाल संपादित लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ पढ़ रहा था। मेरे द्वारा पढ़ने के दौरान एकाध रचना पर उस महिला की दृष्टि पड़ गई। उसने कुछ संकोच के साथ मुझसे अनुरोध किया, ‘‘अंकल, आप पढ़ लें तो यह किताब थोड़ी देर मुझे भी पढ़ने के लिए दीजिएगा।’’ मैंने यह कहते हुए कि मैं तो कभी भी पढ़ लूँगा, समय सीमित है अतः पहले आप पढ़ लें, संकलन उस महिला को दे दिया। मेरे अनुमान के अनुसार वह महिला कोई साहित्यकार नहीं थी। संकलन को करीब डेढ़ घंटे तक पढ़ने के बाद उसने मुझे लौटाते हुए कहा, ‘‘किताब बहुत अच्छी है। इसमें छपी छोटी-छोटी कहानियाँ बहुत अच्छी हैं।’’ इस बीच मैं अविराम साहित्यिकी का लघुकथा विशेषांक पढ़ता रहा, जिसे भी उस महिला पाठक ने मुझसे लेकर पढ़ा और उसमें शामिल लघुकथाओं को सराहा। दूसरी घटना- हमारी एक भाभीजी (हमारे एक घनिष्ठ मित्र की पत्नी) साहित्यकार न होते हुए भी साहित्य की संजीदा पाठक हैं (उनके परिवार में भी कोई साहित्यकार नहीं है)। उनकी रुचि को देखते हुए हम आरम्भ से ही अविराम/अविराम साहित्यिकी के हर अंक की प्रति उन्हें पढ़ने के लिए भेंट करते रहे हैं। आरम्भ के पाँच-सात अंक पढ़ने के बाद उन्होंने एक दिन मुझे कुछ शिकायती लहजे में कहा, ‘‘भाई साहब, आप इसमें कहानियाँ बहुत कम छापते हैं।’’ मैंने उत्तर में उनका ध्यान हर अंक में पर्याप्त संख्या में प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं की ओर आकर्षित किया। वह बोलीं, ‘‘ये भी ठीक हैं पर मुझे तो बड़ी कहानियाँ ही अच्छी लगती हैं।’’ 
    इन दोनों घटनाओं के केन्द्र में लघुकथा है। दोनों घटनाएँ साहित्य के आम पाठकों से संबंधित हैं। लेकिन अपनी अलग-अलग रुचि के कारण एक लघुकथा को बहुत चाव के साथ पढ़ती है और प्रभावित होती है; जबकि दूसरी पाठक लघुकथा के ऊपर कहानी को तरजीह देती है। मैं समझता हूँ लघुकथा (और अन्य लघ्वाकारीय विधाओं) को लेकर चल रही अनेक बहसों और विवादों के अधिकतर जवाब इन और इस तरह की घटनाओं के विश्लेषण में मिल जायेंगे। विवादों और अनेक सतही बातों में उलझने के बजाय हमें मान लेना चाहिए कि साहित्य में स्थापित होने वाले परिवर्तन मनुष्य की रुचि और उसके अन्तःकरण की भाव-भूमि की रासायनिकी से संचालित और नियंत्रित होते हैं। इसमें समय की उपलब्धता-अनुपलब्धता और भागमभाग जैसी चीजों की बहुत अधिक भूमिका नहीं होती, जबकि यह लम्बी खिंची बहस में अहम् मुद्दा रहा है। दूसरी ओर लघुकथा के शिल्पगत ताने-बाने के इर्दगिर्द की चर्चाएं भी अब बेवजह-सी लगने लगी हैं। ये चीजें लघुकथा-सृजन की समीक्षा व समालोचना में कितनी ही उठायी जायें परन्तु लघुकथा की विधागत चर्चाओं व बहसों के केन्द्र में जब तक रहेंगी, लघुकथा को एक नई विधा के दायरे से बाहर नहीं आने देंगी। चूंकि पिछले पांच दशक में इस विधा के रूप-स्वरूप पर पर्याप्त मंथन हुआ है। बहुतायत में सृजन हुआ है। अनगिनत संकलन-संग्रह आए हैं। तकरीबन हर स्तर पर इसकी स्वीकार्यता ज्ञापित हुई है। जनमानस में भी इस विधा ने अपना समुचित स्थान बनाया है। यदि इतने सबके बावजूद इस विधा के बारे में धारणा कुछ ऐसी है कि यह अभी भी एक नई साहित्य विधा है तो यह निराशाजनक है। दूसरी ओर इस पर विधागत विमर्श पांच दशक पूर्व जहां से शुरू हुआ था, सामान्यतः वहीं पर खड़ा दिखाई देता है, विमर्श के वही मुद्दे, वही पुरानी बातें हैं, जिन्हें लगातार दोहराया जा रहा है। चूंकि इन पर आवश्यकतानुरूप पर्याप्त बातें हो चुकी हैं तो अब इनकी पुनरावृत्ति मन को गहराई तक कचोटती हैं। साहित्य में विधागत संधारणा पर क्या इससे आगे कोई गन्तव्य नहीं होता? क्या किसी विधा के अस्तित्व में आने के बाद उसके रूपाकार, शिल्प-संयोजन, ऐतिहासिकता, कुछ घिसे-पिटे वादों के सांचे में जड़े प्रश्नों और इनसे जुड़े विषयों को समाहित करने वाले स्थापना चरण से आगे विमर्श का कुछ अर्थ नहीं होता? विमर्श विधा का वाहक होता है। इसलिए विमर्श जहां जायेगा, विधा को भी वहाँ ले जायेगा। समीक्षा-समालोचना विधा का परिमार्जन कर सकती है, उसके लिए नई जमीन तोड़ने और भूमिका को चरणबद्ध अद्यतन रखने का काम शिल्पकारों के मध्य का विमर्श ही करता है। फिर विमर्श के नए क्षितिज क्यों नहीं? एक विधा के तौर पर उसकी आगे की भूमिका की तलाश क्यों नहीं? मुझे लगता है कि लघुकथा की स्थापना का चरण पूरी तरह संपन्न हो चुका है और अब उसे ‘‘नई विधा’’ की प्रशिक्षण कक्षा से बाहर लाना चाहिए। विमर्श के अनेक पहलू होते हैं और हर पहलू पर चर्चा का एक समय और विधान होता है। लघुकथा के रूप-स्वरूप व नुक्ताचीनियों के सन्दर्भ में बात अब अकादमिक समीक्षकों और समालोचकों के लिए छोड़ देना उचित होगा। लघुकथा के शिल्पकारों के लिए चर्चा के विषय अब लघुकथा की विधागत जिम्मेवारियों से जुड़े मुद्दे होने चाहिए, एक स्थापित और परिपक्व विधा के तौर पर लघुकथा क्या-क्या कर सकती है, उसको क्या करना चाहिए और उसने क्या किया है। इनके मध्य अन्तराल की पहचान-परख जरूरी है। इसी के माध्यम से लघुकथा को मानवीय जीवन के पक्ष में आगे बढ़ाया जा सकता है। साहित्य के उत्तरदायित्वों में मानव जीवन के विविधि पक्षों का प्रेक्षण, मूल्यांकन और संवर्द्धन सर्वाेपरि होता है। यह कार्य मानव जीवन में होने वाले परिवर्तनों और उनके प्रभावों के प्रतिबिम्बन व मूल्यांकनपरक विश्लेषण से संभव है। आने वाले समय की आहट को कल्पनाशीलता के समावेश के कारण साहित्य में ही सबसे प्रभावशाली ढंग से सुना जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज लघुकथा ही नहीं, समग्र साहित्य के समक्ष ही नई-नई जिम्मेवारियां सम्हालने की चुनौती है। समय तेजी से बदल रहा है। कई बदलाव जब तक हमें दिखाई देना आरम्भ होते हैं, वे करवाचौथ के चाँद की तरह बूढ़े हो चुके होते हैं। हम इन बदलावों की प्रक्रिया समझ ही नहीं पाते। ऐसे में सामान्यतः आ चुके बदलावों को स्थापित माइन्डसैट के चश्मे से ही देखते रहते हैं। उनके अन्तस तक पहुँचना प्रायः संभव नहीं होता। चेतना और संवेदनशीलता की सूक्ष्मता हमें अपने अन्दर विकसित करनी होगी, तमाम क्षेत्रों में। मानवीय संवेदना के साहित्य से जुड़े होने के रिश्ते से हमारी जिम्मेवारी कुछ अधिक है। लघुकथा सूक्ष्मता को ग्रहण करने और उसका फोकस बनाने में सक्षम है, इसलिए उसकी भूमिका सर्वाेपरि है। हमें इसी भूमिका पर चर्चा करनी है, विमर्श को केन्द्रित करना है। 
      एक ताजातरीन उदाहरण सामने है। नई पीढ़ी में हो रहे चारित्रिक बदलाव को सामान्यतः राजनैतिक लोग नजरअन्दाज करते रहते हैं, जबकि यही चारित्रिक बदलाव बड़ी उथल-पुथल का कारण बन जाता है। विशेषतः उत्तर भारत में इसे हमने अभी-अभी देखा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन एवं बलात्कार के खिलाफ निर्भया काण्ड के बाद का आन्दोलन, इन दोनों में सहभागिता के मामले में समाज की कई रूढ़ियाँ टूटीं। गरीब-अमीर, जाति-पाँति, एक सीमा तक (स्थानीय) क्षेत्रवाद आदि के दायरों को लाँघकर युवाओं का हुजूम सामने था। बरास्ता कार्पाेरेट कल्चर (इसका प्रभाव कॉन्वेंट, तकनीकी एवं व्यवसायिक शिक्षा से जुड़े संस्थानों में भी है और वहां से प्रसारित होती है) युवाओं में आया चारि़ित्रक बदलाव, जो तमाम संकुचित सामाजिक दायरों की उपेक्षा करके व सामाजिक भेदभाव की सीमाओं के ऊपर अपनी प्रगति को सर्वाेपरि मानने और इसी आधार पर बन रहे पारस्परिक आकर्षण से संचालित हो रहा है। हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में इसका बड़ा सजीव दृश्य देखने को मिला। जहां छह-सात माह पूर्व कोई सोच भी नहीं सकता था कि उ.प्र. व बिहार जैसे धुर जातिवादी राजनीति के शिकंजे में फंसे इन क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी कभी पुनः खड़ी भी हो पायेगी, वहां नई पीढ़ी के चारित्रिक बदलाव का करिश्मा नरेन्द्र मोदी को महानायक बना गया। धुर जातिवादी राजनीति के पुरोधा इस बदलाव को समझने में नाकाम रहे, लेकिन नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ इसे जाना, बल्कि समझकर उसका विश्लेषण भी किया और उसका प्रवाह अपने पक्ष में मोड़ने में कामयाब रहे। इस उदाहरण को सामने रखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना है कि यदि नई पीढ़ी में यह और इस तरह के चारित्रिक बदलाव आते हैं तो उन्हें साहित्य में प्रतिबिम्बित होना चाहिए, विशेषतः लघुकथा जैसी विधाओं में, ताकि कल्पनाशीलता की रोशनी में उनका परीक्षण करके भविष्य की पीढ़ियों के सन्दर्भ में मानवीय जीवन का समुचित प्रतिबिम्बन और विश्लेषण प्रस्तुत किया जा सके। इस तरह के चारित्रिक बदलाव कितने उचित हैं, कितने अनुचित, इनमें से किन्हें कैरी फॉरवर्ड होना चाहिए, किन्हें हतोत्साहित करने की जरूरत है, इसका विश्लेषण साहित्य में बेहतर ढंग से हो सकता है। साहित्य ही इसके लिए सही मंच है। लघुकथा और उससे जुड़े लोगों को इसे समझना होगा।
     दूसरी बात, आन्दोलनात्मक चरित्र के पीछे सदैव आदर्श ही नहीं होते हैं। जीवन शैली से जनित कई तरह की सुविधाभोगी चीजें भी होती हैं। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि अन्ना आन्दोलन व निर्भया काण्ड के बाद के शक्तिशाली दोनों आन्दोलनों में सहभागिता के स्तर पर कई तरह के विरोधाभास भी थे और कई सुविधाभोगी तत्व भी। ऐसी चीजों का सही विश्लेषण व मूल्यांकन न तो आन्दोलन के माहौल में संभव है न ही सामाजिक-राजनैतिक चर्चाओं में। इन दोनों ही मंचों पर कई तरह के दबाव होते हैं, जो सही तस्वीर को उभरने नहीं देते। इसके विपरीत साहित्य में ऐसी चर्चाओं के लिए जोखिम उठाने की क्षमता होती है।
     यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि एक समय की युवा पीढ़ी ही आने वाले समय की वरिष्ठ पीढ़ी होती है। इसलिए प्रत्येक कालखंड में सिर्फ नई पीढ़ी का चरित्र ही नहीं बदलता है, वरिष्ठ पीढ़ी का चरित्र भी बदलता है। और यह बदलाव पाँच-दस वर्षों के अन्तराल के साथ भी हो सकता है। एक समय पर नई पीढ़ी के जो मूल्य होते हैं, कुछ वर्षों बाद जब वही पीढ़ी वरिष्ठ पीढ़ी बनती है, तो अपने समय के मूल्यों, अपने चरित्र को साथ लेकर आती है। बेशक कुछ अनुभवजन्य रूपांतरण हो सकते हैं, पर मूल चारित्रिक कवच से निकलना मुश्किल होता है। ऐसे में हर समय बिन्दु पर समाज का बदला हुआ चरित्र और पीढ़ी अंतराल के नए रूप सामने आते हैं और हमारी तमाम व्यवस्थाओं को प्रभावित करते हैं। 
    ये और ऐसे ही अनेक बिन्दु हैं जिन पर लघुकथा सृजन और विमर्श दोनों को फोकस किया जा सकता है। लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है? जीवन मूल्यों एवं नई पीढ़ी के चारित्रिक रूपांतरण को उसके यथार्थ के साथ गहन एवं समग्र रूप में लघुकथा में उतना नहीं प्रतिबिम्बित किया जा सका है, जितने की अपेक्षा है। जो प्रतिबिम्ब देखने को मिलते भी हैं, वे या तो बेहद सतही हैं या नकारात्मक हैं। इन रूपान्तरणों का तर्कसंगत विश्लेषण का पक्ष तो न के बराबर ही देखने को मिलता है। नई पीढ़ी के हर व्यवहार को हम पुराने मूल्यों के आधार पर नकारात्मक ही मानते रहें, यह किसी भी तरह से उचित नहीं है। उसके व्यवहार को हमें उसकी परिस्थितियों और परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के साथ रखकर देखना होगा। साहित्यकार और उसका कर्म बेहद संवेदनापूर्ण होता है, उससे सतर्कता और न्यायसंगत चिन्तन की अपेक्षा की जाती है। उसकी दृष्टि समग्र को देखने में सक्षम होनी चाहिए, उसमें सूक्ष्मता के साथ विस्तार होना चाहिए, सीमित व्यक्तिपरकता नहीं। सृजन में गहराई भी इसी से आयेगी और हम अपने समय के साथ सही मायनों में इसी तरह जुड़ पायेगे। आज यदि लघुकथा अपने समय के साथ उतना नहीं जुड़ पा रही है जितना कि कहानी, जैसा कि वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे जी मानते हैं, तो इसके पीछे के कारण इसी तरह के हैं। समय को पढ़ना, उसकी गति की सूक्ष्मता और परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने जैसा होता है। सामान्यतः समय कारण और परिणाम के वैज्ञानिक रिश्ते से संचालित होता है, इसी में उसकी गति की सूक्ष्मता और परिवर्तन की प्रक्रिया निहित होती है। एक पहिया, जो घूमता तो तेजी से है लेकिन उसके घूमने में कुछ भी अकारण नहीं होता, न ही कुछ छूटता है, जिसे घूमने की घटना में शामिल होना चाहिए। यही उसकी सूक्ष्मता है। लघुकथा को अपने रास्ते पर इसी तरह समय का अनुसरण करना होगा। यह अनुसरण उसके विकास का दूसरा चरण होगा, जो उसे मानवीय जीवन के अद्यतन परिवर्तनों और रूपान्तरणों को प्रतिबिंबित करने को प्रेरित करेगा, साथ ही उनके विश्लेषण और संवर्द्धन के लिए भी।
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