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गुरुवार, 10 जुलाई 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10,  मई-जून 2014


।।कविता अनवरत।।


सामग्री :  इस अंक में सर्वश्री नारायण सिंह निर्दोष, डॉ. पंकज परिमल, जयप्रकाश श्रीवास्तव, शेर सिंह, धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’, अजय चन्द्रवंशी, सतीश गुप्ता व डॉ. अ. कीर्तिवर्धन  की काव्य रचनाएं।


नारायण सिंह निर्दोष 




दो ग़ज़लें

01.
यूं तो पत्थर चेहरों का पिघलना न हुआ
कभी पिघले भी तो साँचों में ढलना न हुआ

एक मुद्दत सी हो गयी, यारों तुमसे मिले
ये क्या बात हुई, घर से निकलना न हुआ

ले गईं आँधियाँ उड़ाकर वजूद अपना
ऐसे पेड़ों से हम लिपटे कि हिलना न हुआ

ज़िन्दगी! तेरी शह पर बेतरतीब रहे
तूने जो दरवाजा खोला, सँभलना न हुआ

हसरतें धूँ-धूँ कर जला करती हैं लेकिन
लोग कहते हैं कि ये जलना जलना न हुआ
रेखा चित्र : पारस दासोत 


02.
तुम न थे तो कारवाँ रूठे मुकद्दर-सा हुआ
तुम से मिलके यूं लगा, तुमसे मिले अरसा हुआ

सामान लेकर चल दिये हर दूसरे इतवार को
देखते ही देखते हर घर मिरे घर-सा हुआ

ऊँचा करें दरवाजों को याकि कद छोटा करें
आपका बर्ताव तो, बर्ताव अफ़्सर-सा हुआ

आसमानों में मैंने कितनी ही उड़ानें भरीं
बीच लोगों के ज़िकर मेरा कटे पर-सा हुआ

कहकर यह पपीहे ने दावा मेरा खारिज़ किया
बादल तो मैं हूं मगर, बादल हूं बरसा हुआ

वो गरम मिज़ाज़ हैं, मगर हैं तो पुरबाईयां
छूने का इक एहसास भी, एहसास इतर-सा हुआ

हम सफ़र के यारो शौकीन इतने हो गये
पेड़ों की छांव में बैठना भी सफ़र-सा हुआ

आदमी कोई न था, सिर्फ बियावान था
कानों का खड़ा होना भी, बैठे हुये डर-सा हुआ

  • सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096 // मोबा.: 09810131230



डॉ. पंकज परिमल



{कवि-निबन्धकार पंकज परिमल का गीत-नवगीत संग्रह ‘उत्तम पुरुष का गीत’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था, जिसमें उनके अनेक महत्वपूर्ण गीत-नवगीत संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं इस संग्रहद से उनके तीन प्रतिनिधि नवगीत।} 

तीन नवगीत

01. पूरा जीवन पर बीत गया...

बैमाता
मेरे माथे पर 
लिख गई न जाने क्या 
पूरा जीवन तो बीत गया
उसकी व्याख्या में ही
अवसाद घना लिख गई
लिखा मैंने भी तो पौरुष
वह तिमिर घना लिक्खे
तो मैं भी
साधूँ किरन-धनुष
सम्पदा-सौख्य
सब कुछ लिक्खा होगा
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना 

बैमाता ने
पूरा जीवन पर बीत गया
गहरी विपदा में ही
उसने उड़ान लिख दी
मैंने आगे आकाश लिखा
उसने थकान लिख दी
मैंने गति का अभ्यास लिखा
माथे पर रख दी तो होगी
आश्वस्ति-भरी अँगुली
पर अपना समय गया सारा
शंका-दुविधा में ही
जो कोमल थे अहसास
चुभे वे ही बनकर काँटे
मेरे एकान्तिक सुख पल
दुनिया ने मुझसे बाँटे
बैमाता
लिख तो गई
मरण से ही पहले ज्वाला
मैं जीवित हूँ लेकिन उसकी
इस दाहकता में ही
युग-भर की चिंताएँ सिर लूँ
यदि राज-पाट लिक्खे
उसमें युग की हिस्सेदारी
यदि ठाठ-बाट लिक्खे
बैमाता
लिख दे राजयोग भी
लेकिन क्या कहिए
राजाजी का जीवन बीते
यदि चारणता में ही

02. उतनी झरी व्यथा

जितना-जितना मुसकाए हम
उतनी झरी व्यथा
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 
    जितने सुख सँघवाए उतने
    और दरिद्र हुए
    तागे थे मजबूत सिवन के
    ज़्यादा छिद्र हुए
और हो गई सघन वेदना
जितनी कही कथा
    उपवासों से हुई अलंकृत
    भूख महान हुई
    उपहासों की खिलखिल गूँजी 
    नींद हराम हुई
उस पथ पर चलने की विद्या
हमको नहीं पता

03. चढ़ा मारीच आता है#

हमारी यज्ञ-वेदी तक
चढ़ा मारीच आता है
    कि विश्वामित्र की भी साधना में
    विघ्न पैदा कर
    बरस के दुष्ट ओले की तरह 
    फिर नष्ट खुद को कर
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
    हमारे यज्ञ के रक्षक
    सजगता से रहे तत्पर
    उन्हीं के हाथ कसते क्रोध से हैं
    रुद्र के धनु पर
कठिन है काल उनका
मृत्यु-मुख में खींच लाता है
     कभी तो कर दिया हमने क्षमा
    जो पार जा पटका
    रची माया, दिया हमको
    कठिन वन-प्रान्त में भटका
    भले सुख-शांति भी अपनी
    गँवानी पड़ गयी हमको
    करेंगे अंत अब वे तीर ही
    इस छद्म नाटक का
धरा को रक्त से जो पापियां के
सींच जाता है

(#13 दिसंबर 2001, संसद पर आतंकी हमले की स्मृति)

  • ‘प्रवाल’, ए-129, शालीमार गार्डन एक्स.-।।, साहिबाबाद, जिला : गाजियाबाद (उ.प्र.) // मोबा.: 09810838832



जयप्रकाश श्रीवास्तव






{कवि श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव का वर्ष 2012 में प्रकाशित गीत/गीतिका संग्रह ‘मन का साकेत’ हमें हाल ही में पढ़ने का अवसर मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी कुछ रचनाएं।}

कुछ रचनाएँ

01. रेगिस्तान मन

तन पिघलती धूप में
मन रेगिस्तान है

पाँव नीचे दबी सूखी पत्तियाँ
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

चीखती हैं दर्द के अहसास से
समूचा जंगल उघारे देह को
जी रहा बस धरा के उच्छवास से
हाथ फैला सृश्टि से
बस माँगता पहचान है

लगाती है नदी डुबकी रेत में
तटों पर हैं प्यास की गहराइयाँ
घूमती हैं लू-लपटों की शक्ल में
हवा, आँचल में छुपाए आँधियाँ

धार, टूटी नाव में 
लेटी, लिए तूफान है

02. धूप की नदी

राहों में लू-लपट की बाढ़
ले आई धूप की नदी

मौसम ने गरमाया
सारा उपवन
पतझड़ की समिधा से
सूर्य के हवन
छाया चित्र : अभिशक्ति 

अलसाई देह को उघाड़
लेटी है रूप की नदी

खेतों पर चैत ने
चलाया खंजर
धरती पर फैल गया
भूखा बंजर

होगा कब जेठ ये असाढ़
पूछ रही सूखती नदी

03. रंगों की बौछार

पत्ते-पत्ते पर पुरवा ने
गीत लिखे हैं प्यार के
हँसे धूप बासंती चूनर
इस धरती पर डार के

पीले चावल डाल दे गया
मौसम न्यौता
फागुन का संदेश सुनाए
हरियल तोता
यौवन की अमराई सर पर
बाँधे मौर बहार के

उमर अल्गनी पर लटके
छाया चित्र : अभिशक्ति 
खुशियों के कपड़े 
दर्द हिंडोला टूट गया
हुए दुख लूले लंगड़े
सन्यासी का मन भींज गया है
रंगों की बौछार से

चुटकी भर अबीर प्रेम की
लिखता परिभाषा
जगा रहा जन-जन के मन
कोई अभिलाषा
हुए मोथरे प्रण सारे सब
बदले की तलवार के

04.  गीतिका

उम्र भर जो सलीब ढोते हैं
उनके भी क्या नसीब होते हैं

भूख अहसान फरामोश नहीं
पेट अपने रकीब होते हैं

भीड़ गाती है शहीदाना ग़ज़ल
लाश काँधे गरीब ढोते हैं

वतन पर जाँ निसार करते हैं
चंद ऐसे मुज़ीब होते हैं

सतह पर फिर उभर न पाये कभी
वक्त के भी अजीब गोते हैं

  • आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी, शक्तिनगर, जबलपुर-482001, म.प्र. // मोबा. : 07869193927


शेर सिंह





{कवि श्री शेर सिंह जी का कविता संग्रह ‘मन देश है- तन परदेश’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएं।}

कुछ कविताएं

01. ऐसा क्यों होता है

ऐसा क्यों होता है
जिसे हम नायक, महानायक 
मानने लगते हैं
अपने आदर्श के रूप में
मन में स्थापित कर लेते हैं
रेखा चित्र : उमेश महादोषी 

धीरे-धीरे हमारे दिलों से 
उतरने लगता है
और, हमारे दिलों में बसी
उसकी आदर्श छवि 
खंडित होने लगती है

फिर एक दिन 
ऐसा भी आता है
जब हम पाते हैं कि
हमारा नायक, महानायक
हमारा आदर्श
हमारे दिलों में मरने लगा है

हम पाते हैं कि वह
हम और आप जैसा
एक साधारण आदमी है
बल्कि हम से भी
निकृष्ट उसकी सोच
और उसके कर्म हैं

केवल हमने ही उसे
नायक, महानायक स्थापित किया
हमने ही अब
झाड़, पोंछ दिया है
अपने दिलों से उसे
लेकिन ऐसा क्यों होता है? 

02. समय

लम्बे पंजों/तीखी चोंच से
ले जाता है सब/सुख
समय/नोंचकर
अंगार से भर दिये हों/आंखों में
और कंठ में/ढोल/दांतों में जकड़े/झंकार फूटे न
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा  
मुंह के/कपाट खोलकर?
समय का ही दिया है
ये सब/राहें/चीन्हे-अनचीन्हे/और कहीं-कहीं
कर्म का ही/दूध पिलाया है।

मुखौटे के अन्दर/मुखौटा
सादे आवरण में/धारियां
सत्य को/छिपा लो/मिथ्या को बढ़ा दो
समय/सब कुछ/उजागर-
कर ही डालता है।

03. लड़ाई

लड़ाई तो लड़ाई है
कोई पत्थर से
वार करे
कोई शब्द और बुद्धि से
होते हैं घायल 
दोनों से

मिट जाता है
पत्थर से दिया हुआ घाव
बुद्धि, शब्दों का
दिया घाव लेकिन
सालता है
कचोटता है
सालों-साल।

  • के. के.-100, कविनगर गाजियाबाद-201001 // मोबा. :  08447037777


धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’



ग़ज़ल

धूप से फिर छाँव में हम आ गये।
ज़िन्दगी के अर्थ फिर धुँधला गये।

आपको बचना था सच्चाई से जब
आइने के सामने क्यूँ आ गये।

कुछ तो हम दुनिया से शर्मिन्दा रहे
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा  

कुछ हम अपने-आप से शरमा गये।

मुद्दतों के बाद वो मुझसे मिला
लफ़्ज़ मेरे जाने क्यूँ पथरा गये।

अब तो ‘साहिल’ मिल के ही जायेंगे
उनके दरवाजे तलक जब आ गये।

  • के 3/10 ए, माँ शीतला भवन, गायघाट, वाराणसी-221001(उ.प्र.) // मोबाइल : 08935065229 07275318940



अजय चन्द्रवंशी




ग़ज़ल

ये भरम भी टूटेगा किसी दिन।
कि तेरा साथ न छूटेगा किसी दिन।

इस तरह जो खिड़की बंद रखेगा,
कमरे में ही दम घुटेगा किसी दिन।

इस जुल्म की भी इन्तिहा होगी,
ये घड़ा भी फूटेगा किसी दिन।

अब तक तो सबको मनाता रहा,
ऐ दिल तू भी रूठेगा किसी दिन।

  • राजमहल चौक, फूलवारी के सामने, कवर्धा, जिला- कबीरधाम-491995 (छ.गढ़) // मोबा. : 09893728320



सतीश गुप्ता




{कवि एवं काव्य केन्द्रित लघु पत्रिका ‘अनन्तिम’ के संपादक श्री सतीश गुप्ता का दोहा संग्रह ‘शब्द हुए निःशब्द’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनके कुछ प्रतिनिधि दोहे।}


कुछ दोहे

01.
भावुकता पानी हुई, सजल हुए हैं नैन।
झर-झर झरती प्रार्थना, शब्द हुए बेचैन।।
02.
समय सत्य का सारथी, समय सत्य का दूत।
सहचारी बनकर रहे, मेरे शब्द सपूत।।
03.
अंगारों पर हैं कमल, दरवाजे पर हाथ।
शालों की तासीर है, अब शबनम के साथ।।
04.
दिग-दिगन्त में डोलता, सहज आत्म विश्वास।
छाया चित्र : अभिशक्ति 

सुन्दरता के परस से, शान्त हुए उच्छ्वास।।
05.
हर मानव के पास है, आग और तूफान।
बम गोला बारूद सब, रक्त बीज सन्तान।।
06.
चटके हर संवाद की, चुप्पी भरे दरार।
आवाजों की मौन से, ठनी रही तकरार।।
07.
तितली चिड़िया चाँदनी, फूलों का श्रृंगार।
नरम हथेली चूमकर, व्यक्त करें आभार।।
08.
समय कभी बर्बर हुआ, और कभी भयभीत।
कभी युद्ध की घोषणा, कभी हृदय की प्रीत।।
09.
जहाँ शुरू होता सफर, वहीं हुआ है अंत।
अनचीन्हा लगता रहा, झुर्रीदार बसंत।।
10.
अपने से लड़ता रहा, वह खुद अपने आप।
अन्त समय तक युद्ध-रत, हार गया चुपचाप।।

  • के-221, यशोदानगर, कानपुर-208011, उ.प्र. // मोबा. :  09793547629


डॉ. अ. कीर्तिवर्धन 





कुछ छुटपुट रचनाएं

01.
अपनी शख्सियत को इतना ऊंचा बनाओ,
खुद का पता तुम खुद ही बन जाओ। 
गैरों के लबों पर तेरा नाम, आये शान से,
मानवता की राह चल, गर इंसान बन जाओ। 
02.
किसी कविता में गर नदी सी रवानी हो,
सन्देश देने में न उसका कोई सानी हो। 
छंद-अलंकार-नियमो का महत्त्व नहीं होता,
जब कविता ने दुनिया बदलने की ठानी हो। 
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

03.
गिरगिट की तरह रंग बदलते हर पल,
तेरे लफ्जों में तेरा किरदार ढूँढूँ कैसे ?
कबि तौला कभी माशा, तेरे दाँव -पेंच,
तेरे जमीर को आयने में देखूं कैसे?
04.
मंजिल की तलाश में, जो लोग बढ़ गए,
मंजिलों के सरताज, वो लोग बन गए। 
बैठे रहे घर में, फकत बात करते रहे,
मंजिलों तक पहुँचना, उनके ख्वाब बन गए। 

  • 53, महालक्ष्मी एंक्लेव, जानसठ रोड, मुजफ्फरनगर-251001 (उ0प्र0) // मोबाइल :  09058507676

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