आपका परिचय

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

क्षणिका विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 05-06, जनवरी-फरवरी 2014


।। क्षणिका विमर्श ।।


{ क्षणिका पर विमर्श की जरुरत को देखते हुए इसके लिए अलग (खंड) लेवल निर्धारित  है। अविराम साहित्यिकी के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013 अंक) में क्षणिका पर शामिल आलेख यहाँ रखे जा  हैं, ताकि रचनाकारों व शोधकर्ताओं के लिए एक स्थायी दस्तावेज उपलब्ध हो सके। इससे पूर्व डॉ. बलराम अग्रवाल व डॉ. उमेश महादोषी के आलेख भी इस ब्लॉग पर  जा चुके हैं, जिन्हें इस लिंक पर खोज जा सकता है-      अविराम विमर्श 
हम प्रयास करेंगे कि किसी आगामी अंक में उन दोनों आलेखों को भी 'क्षणिका विमर्श' लेवल के अंतर्गत पुन: प्रकाशित किया जा सके। }

सामग्री  :  इस अंक में (डॉ.) कमल किशोर गोयनका, (डॉ.) सतीश दुबे,  (डॉ.) सुरेन्द्र वर्मा,  रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, जितेन्द्र ‘जौहर’,  (डॉ.) पुरुषोत्तम दुबे, नित्यानंद गायेन,  (डॉ.) शैलेश गुप्त ‘वीर’ व सुश्री शोभा रस्तोगी शोभा  के क्षणिका-विधा के विविधि पक्षों को रेखांकित करते आलेख। साथ ही सर्वश्री (डॉ.) डी. एम. मिश्र, (डॉ.) शरद नारायण खरे, चक्रधर शुक्ल, रमेश कुमार भद्रावले, गुरुनाम सिंह रीहल, गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’, राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ की वैचारिक टिप्पणियां। 





(अ ) क्षणिका-विधा के विविधि पक्षों को रेखांकित करते आलेख


डॉ. कमल किशोर गोयनका



क्षणिका ने काव्य में सूक्ष्मतर संवेदनाओं की प्रस्तुति को सम्भव बनाया है
     
आपके पत्र/पत्रिका के सम्बन्ध में, ‘क्षणिका’ को एक स्वतन्त्र विधा का दर्जा देने का प्रश्न उठाया है, जो मैं समझता हूँ कि बहस के लिए एक अच्छा मुद्दा है। हिन्दी साहित्य का 20 वीं सदी का इतिहास नई-नई विधाओं के जन्म, उनके विरोध और स्वीकृति का इतिहास रहा है। गद्य और पद्य में, दोनों में ही, नई-नई विधाएँ उत्पन्न हुईं और उन पर प्रश्न उठे, विरोध हुआ और कालान्तर में उनके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया। नई विधाओं के जन्म में रचनाकार का प्रयोगधर्मी होना तो होता है, लेकिन प्रायः इतनी अधिक संवेदनाओं का नये-नये रूपों में अभिव्यक्त करने की बेचैनी भी होती है। समय का चक्र भी रचनात्मकता को प्रभावित करता है, तभी हम महाकाव्य से खण्डकाव्य, लघुकाव्य, दोहा, हाइकु तथा क्षणिका तक आ गये हैं। आज बड़ी काव्य काया वाले काव्य-ग्रन्थों को पढ़ने का समय किसके पास है, अतः रचनाकार समय के दबाव में छोटी-छोटी विधाओं को अपनाता गया है। दोहा, ग़ज़ल, हाइकु जैसी विधाओं की स्वीकृति में यही दबाव क्रियाशील रहा है। अब ’क्षणिका’ ने जन्म लिया है और अब वह पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती है और सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाओं को काव्य में प्रस्तुत करना सम्भव हो सका है। आज जीवन में छोटे-छोटे सत्यों, अनुभूतियों तथा संवेदनाओं का व्यापक संसार हमारे चारों ओर घूम रहा है। एक रचनाकार जब इन जीवन-सत्यों की अनुभूति करता है तो वह लघुकाय क्षणिका में उन्हें उतार देता है, लेकिन प्रायः इन क्षणिकाओं में केवल जीवन सत्यों का वर्णन होता है, कविता की झलक तथा चमक उसमें दिखाई नहीं देती। ‘क्षणिका’ आज की एक काव्य विधा है, लघुकाय विधा है, परन्तु है तो कविता की ही। अगर उसमें कविता नहीं है तो उसे क्षणिका कहने का क्या औचित्य है? अब आपकी मानक कसौटी का प्रश्न- साहित्य में कोई शाश्वत कसौटी नहीं होती, क्षणिका की भी कोई शाश्वत कसौटी नहीं है, लेकिन यह आवश्यक है वह अपनी विधा की मूल आत्मा को आत्मसात् करके चले। ‘लघुकथा’ में यदि कथा नहीं है तथा ‘क्षणिका’ में यदि कविता नहीं है तो उसे कुछ भी कहें ‘लघुकथा’ तथा ‘क्षणिका’ नहीं कह सकते। ‘क्षणिका’ में रचनाकार की उपस्थिति के लिए कोई स्थान नहीं है, वह रचनाकार मुक्त विधा है, परन्तु रचनाकार की बारीक दृष्टि, विषय में जीवन सत्य का उद्घाटन तथा कम से कम शब्दों का चयन तो आवश्यक है। ‘क्षणिका’ अभी विकास की प्रक्रिया में है, उस पर चिन्तन-मनन के साथ अभी ‘क्षणिका’ की श्रेष्ठतम रचनाओं को आना है, अतः उसके मानकों का अंतिम निर्णय सम्भव नहीं है। बड़ी रचना पुरानी कसौटी को बदलकर नई कसौटी को जन्म देती है। ‘क्षणिका’ को अभी इस प्रक्रिया से गुजरना है।

  • ए-98, अशोक विहार, फेज प्रथम, दिल्ली-110052


डॉ. सतीश दुबे



क्षण-विशेष के वैचारिक-मंथन को सूक्ष्म फलक पर रूपायित करती काव्याभिव्यक्ति : क्षणिका

 काव्य-विधा के अन्तर्गत परम्परागत छन्दबद्ध लेखन के समांतर छन्दमुक्त रचना-शैली के आविर्भाव से कविता अधिक समृद्ध, विकसित तथा विभिन्न आयामों की ओर अग्रसर हुई। विभिन्न आन्दोलनों ने वस्तु, भाषा-शैली तथा वैचारिक सोच के जरिये परम्परागत मिथकों को खारिज कर कविता को सामान्य-जन तथा समसामयिक स्थितियों से सम्बद्ध किया। कविता राजवाड़ों, आदर्श-नैतिक उद्बोधन, मंदिर-मस्जिद की दीवारों से मुक्त होकर गांवों की पगडंडी, सड़क से गुजरती हुई संसद तक पहुंची। स्पष्ट है इन समस्त बदलती स्थितियों में बंधी-बंधाई चौखट से परे सृजकों ने रचनात्मक स्तर पर उन्मुक्त अभिव्यक्ति के लिए कविता को विभिन्न आकार-प्रकार के प्रयोगों से संवारा। इसे संयोग की अपेक्षा सोच की मानसिक एकरूपता ही कहा जाना चाहिए कि इस दौर के करीब प्रत्येक कवि ने शब्दों की मितव्ययिता के साथ ऐसी कविताएं रचीं, जो चंद पंक्तियों में प्रभावी काव्यास्वाद करा सकें। कालांतर में इसी संक्षिप्त अभिव्यक्ति के फार्मेट ने क्षणिका नामजद जामे के साथ कविता-संसार में दस्तक दी।
    जैसाकि नाम से जाहिर है क्षणिका के कथ्य का रिश्ता व्यक्ति की जिन्दगी से जुड़े हर उस पल से होता है, जिसे महसूस करते हुए भी वह उसकी आंतरिक परत में छिपे सूक्ष्म यथार्थ से अपने को एकाकार नहीं कर पाता। कवि अपनी संवेदनशील दृष्टि से उजागर कर उसमें निहित विराट प्रभाव से श्लोक की तरह कुछ शब्द पंक्तियों में साक्षात्कार कराता है। जीवन-यथार्थ ही नहीं मनोभाव, मनोविकार, मानवीय चरित्र, विसंगति-विद्रूपता जैसे अनेक वे विषय जो रचनाकार के लिए साहित्यिक-सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में रचनात्मक धरातल पर रेखांकित करना जरूरी होते हैं, क्षणिका की वस्तु-परिधि में समाहित रहते हैं। क्षणिका की असली शक्ति उसकी प्रस्तुति या सम्प्रेष्य क्षमता होती है। इसलिए जरूरी है कि विषयवस्तु में संक्षिप्त शब्दों और पंक्तियों में इस प्रकार तराशा जाय कि अंतिम पंक्ति से चमत्कार नहीं अर्थ-गाम्भीर्य का काव्यास्वाद महसूस हो सके। हायकु की तरह क्षणिका की प्रत्येक पंक्ति शब्द-संयोजन मात्र नहीं वस्तु की प्रभान्विति के सांकेतिक अर्थ या बिम्ब से सम्बन्धित होती है। क्षणिका चूंकि कविता की अपने तात्विक अस्तित्व के साथ महत्वपूर्ण शैली होती है, इसलिए सम्प्रेष्य-स्तर पर जरूरी है कि उसमें कविता सी तासीर भरी ताज़गी हो।
     उपर्युक्त रचना प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में क्षणिका क्षण विशेष के संवेदनात्मक वैचारिक मंथन को सीमित शब्द रंगों से सूक्ष्म फलक पर रूपायित करती काव्याभिव्यक्ति है। क्षणिका, एक बिम्ब, एक विचार, एक प्रभाव को कुछ पंक्तियों में शिद्दत के साथ व्यक्त करती कविता है। क्षणिका का अन्त विचारों या भावों के विस्फोट से नहीं अन्तर्मन में समाहित होकर संवाद या चिंतन के साथ होता है।
    यह दोहराने की आवश्यकता संभवतः नहीं है कि क्षणिका-लेखन का प्रारम्भिक स्वरूप नई कविता या छन्दमुक्त कविता-सृजन के साथ ही उभरने लगा था। तारसप्तक के पड़ाव तक तो मिनी-कविता के नाम तले लिखी जाने वाली लघ्वाकारीय कविताओं को बनावट-बुनावट की दृष्टि से क्षणिका माना जा सकता है। अज्ञेय की ‘‘साँप’’ रचना इसकी बेहतरीन मिसाल है। लाक्षणिक भाषा-शैली  में सुशिक्षित व्यक्ति-चरित्र की इसे बेजोड़ रचना माना जा सकता है। इसी संदर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह रचना- "घास की पत्ती के सम्मुख/मैं झुक गया/और मैंने पाया कि/मैं आकाश छू रहा हूँ"। श्रंगार रस में तिरोहित कर देने वाली केदारनाथ सिंह की बिना किसी कैफियत के प्रस्तुत है ये पंक्तिबद्ध छोटी सी रचना- ‘‘उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए/मैंने सोचा/दुनियां को/हाथ की तरह/गर्म और सुन्दर होना चाहिए’’। कविता की इस वरिष्ठ पीढ़ी ने वर्ण की शब्द से वाक्य तक की शक्ति को पहचान देकर परवर्ती नए कवियों को इस प्रकार के लेखन के लिए प्रेरित किया।
     क्षणिका की विकास-यात्रा में राजेन्द्र अवस्थी के अवदान को विशेष रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए। बहैसियत सम्पादक ‘‘कादम्बिनी’’ उन्होंने क्षणिका को अपने लाखों पाठकों तक पहुँचाकर नाम तथा रचना-विधान से परिचित कराया। ‘कादम्बिनी’ पहली और अंतिम ऐसी पत्रिका राजेन्द्र अवस्थी के कार्यकाल-पर्यन्त रही, जिसने एक पूरा पृष्ठ ‘‘क्षणिकाएँ’’ शीर्षक से निर्धारित कर नियमित रूप से क्षणिकाएँ प्रकाशित कीं। जन-सामान्य पाठक-वर्ग तक पहुँच रखने वाली इस पत्रिका ने अनेक रचनाकारों को प्रकाशन-मंच देकर प्रतिष्ठा-प्रोत्साहन से नवाजा। इस स्तम्भ ने सरोजिनी प्रीतम जैसे नियमित लेखकों के नामों को उनकी रचनात्मक ऊर्जा के बलबूते पर क्षणिका के साथ नत्थी कर अपनी डायरी में अंकित किया।
    क्षणिका के विकास या उसे काव्य-विधा के बीच चर्चित बनाए रखने के लिए किसी केन्द्रीय पत्रिका की विशेष भूमिका या रचनाकारों की विशेष हलचल या प्रयास के उदाहरण मेरी जानकारी में नहीं हैं। हां, इस क्षेत्र में जो कुछ लोग जुटे हुए हैं, उन्हें सक्रिय बनाए रखने तथा स्वयं की विशेष पहल को नित-नित नए अंजाम की ओर अग्रसर एक समर्पित व्यक्ति उमेश महादोषी के अवदान से मैं ज़रूर मुखातिब होता रहता हूँ। उमेश जी विगत तीस-पेंतीस वर्षों से क्षणिका को विधागत दर्जा तथा उसे प्रांजल स्वरूप प्रदान करने में जुटे हुए हैं। बलराम अग्रवाल के साझे में वे इस लेखन की रचना-प्रक्रिया तथा काव्य-विधा में उसकी स्थिति को रेखांकित करने के लिए न केवल आलेख बल्कि मौके-बेमौके संकलनों का प्रकाशन कर रहे हैं। ‘‘अविराम’’ पत्रिका एवं उनका साइट ब्लॉग बतौर बानगी ताजा मिसाल है। क्षणिका के अनेक रचनाकारों को विभिन्न स्तरों पर जुटाकर उन्होंने उनकी क्षमता से एक बड़े वर्ग को परिचित कराया है। उमेश महादोषी, बलराम अग्रवाल के साथ क्षणिका-लेखन के लिए बरसों से समर्पित कुछ और यादों में उभरने वाले नाम हैं- रामकुष्ण विकलेश, डॉ. स्वर्ण किरण, शिव कुमार मिश्र (शिव), डॉ. कमलेश शर्मा, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, नारायण सिंह निर्दोष, महावीर रंवाल्टा, डॉ. अनिता कपूर, केशव शरण, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा। संचार क्रान्ति के उपकरणों पर क्षणिका आ रही है। उनके पाठक सीमित होने के बावजूद क्षणिका-लेखन को उस माध्यम से विस्तृत फलक प्राप्त हो रहा है।
     इस समस्त चर्चा को केन्द्र बिन्दु क्षणिका की शक्ति एवं काव्यास्वाद से परिचित होने के लिए दृष्टव्य हैं कुछ रचनाएँ-     ‘‘मेरे तुम्हारे बीच/इतना अन्तर रहा/तुम जिधर भी गई/मैं समान्तर चला‘‘ (बलराम अग्रवाल)। 
   ‘‘उस पार था खेत/बीच में नदी/बह गया हरिया/धार कुछ ऐसी थी/आँखों में उगती रही/फसल हरी-भरी’’ (उमेश महादोषी)।
     ‘‘भीड़ को/अपना चेहरा सौंपकर/मैंने पाया/वह गूंगा हो गया है/और मुस्कुराती हुई भीड़/अपने हाथों से/मुर्दाबाद कहने लगी है’’ (धनंजय सिंह)। 
  ‘‘ऐसा/नहीं कि/मैं जानता नहीं/और ऐसा भी/नहीं कि/बता नहीं सकता/पर/एहसास/तो उनको भी होता है/जिनके पास शब्द नहीं होते‘‘ (अमितेश जैन)।   
    ‘‘हमें लगता था/खुश्बू लिए हवा का झोंका/मुझसे मिलने/सिर्फ मेरी खातिर आया है/जब गौर किया/तो पाया हमने/उसने तो मेरे साथ-साथ/कई और जुल्फों को बिखराया है‘‘ (रश्मि प्रभा)। 
      ये क्षणिकाएँ दावा करती हैं कि प्रभान्विति के स्तर पर वे एक लम्बी कविता के अंत से भी अधिक सशक्त हैं। क्षणिका जिस दौर या स्थिति से गुजर रही है, उसके मद्देनजर ज़रूरी है कि साहित्य-जगत में उसकी विभिन्न क्षेत्रों में चर्चा, काव्य-विधा के समकक्ष हो। और इसके लिए समर्पित सृजक, विभिन्न मोर्चों पर कुछ विशेष कर-गुजरने की मुहिम को कैसे अंजाम दिया जा सकता है, इस मुद्दे पर मंथन-चिंतन करें।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009, म.प्र.


डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 



क्षणिका का स्वरूप                                                  

 लघुकाय कविताओं के लिए ‘क्षणिका’ शब्द का पहली बार प्रयोग रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया था, उनकी छोटी-छोटी रचनाओं का काव्य-संग्रह ‘क्षणिका’ नाम से प्रकाशित हुआ था, बाद में ‘स्फुलिंग’ नाम के काव्य-संग्रह में उन्होंने कुछ और छोटी रचनाएं दीं जिनमें छोटी होने के बावजूद अर्थव्यंजना और भावों की गहनता स्पष्ट परिलक्षित होती है। रवींद्रनाथ की इन कविताओं की चर्चा अधिक नहीं हुई है, न ही भारतीय भाषाओं में -हिंदी सहित- इनका अनुवाद ही हुआ है। हां, ‘स्ट्रे बर्ड्स’ शीर्षक से ऐसी कविताओं का एक संकलन अंग्रेज़ी में ज़रूर आया है।
     क्षणिका का क्या अर्थ है और क्या सभी लघुकाय कविताओं के लिए यह एक उपयुक्त संज्ञा है? हिंदी शब्द-कोश में क्षणिका का केवल एक ही अर्थ मिलता है, बिजली. मेघ-द्युति क्षणभर के लिए चमकती है अतः, क्षणिका। क्षणिका मेघ-विद्युत है। ज़ाहिर है, क्षणिका शब्द क्षण से बना है और क्षण के उपयोग के अनुसार, कई अर्थ हो सकते हैं। यह एक लमहा है, समय की गति का एक बिंदु है। साथ ही यह ‘अवसर’ और ‘अवकाश’ के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। शुभ काल के लिए, उत्सव और आनंद के अर्थ में, भी क्षण का प्रयोग देखा जा सकता है। ‘‘वह क्षण आपने गवां दिया जिसे आप भुना सकते थे’’ (अवसर), ‘‘बहुत दिन बाद यह क्षण (अवकाश) मिला है, कुछ देर साथ साथ बिता लें’’, ‘‘आखि़र वह क्षण (शुभकाल) आही गया जिसका इंतज़ार वर्षों से कर रहे थे‘‘। ‘‘अब रोको नहीं मुझे इस क्षण (उत्सव) को भरपूर मना लेने दो’’।
     रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी लघु कविताओं को क्षणिकाएं क्यों कहा होगा? क्या सिर्फ इसलिए कि वे लघुकाय हैं और क्षण भर में उन्हें पढ़ा/सुना जा सकता है। याद कीजिए, जापानी हाइकु को ‘एक श्वासी’ कविता कहा गया है। हम एक सांस में उसे पढ़ जाते हैं. क्या छोटी कविताएं क्योंकि वे निमिश मात्र में पढ़ी जा सकती हैं, केवल इसीलिए क्षणिकाओं की कोटि में आती हैं? लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि रवींद्रनाथ क्षणिकाओं के रूप में उनमें कुछ और भी तलाश करते हैं। वे उनमें विद्युत की चमक भी देखते हैं। शायद इसी बात पर बल देने के लिए उन्होंने अपनी छोटी कविताओं के एक अन्य संग्रह को ‘स्फुलिंग’ कहा। ‘स्फुलिंग’ अग्नि कण या चिंगारी को कहते हैं। चिंगारी में निःसंदेह, वह कितनी भी क्षणिक क्यों न हो, एक चमक होती है और वह भड़क भी सकती है। उसकी तासीर बिलाशक तेज़ है। सही जगह मिल जाए तो आग लगा दे। कविता में जब तक यह चमक और भावों को उत्तेजित करने की तासीर न हो हम उसे कविता भला कैसे कह सकते हैं? जब हम क्षणिकाओं की बात करते हैं तो ये केवल ऐसी ही लघु कवियताएं हो सकती हैं जो हमारी चेतना को एक नई चमक से आलोकित कर दें और यदि ज़रूरी हो तो उसे कर्म के लिए प्रज्ज्वलित भी करें। मुझे लगता है रवींद्रनाथ ठकुर के मन में लघु कविताओं को ‘क्षणिकाएं’ या ‘स्फुलिंग’ कहते समय ये सारी बातें अवश्य रही होंगीं।
    हिंदी में छोटी-छोटी स्फुट अभिव्यक्तियों के लिए ‘क्षणिका’ नाम अब रूढ़ हो गया है। वैसे वे कणिका, शब्दिका, मनका, दंशिका, हंसिका आदि नामों से भी पुकारी गई हैं। अधिकांशतः ये सूक्ति कथन या परिभाषाएं बनकर रह जाती हैं (शब्दिकाएं) या, चुभने वाली टिप्पणियां होती हैं (दंशिकाएं) अथवा हास्य-भाव उभारने वाली हंसिकाएं बन जाती हैं। ऐसी कविताओं को क्षणिकाएं कहने में हिचक होना स्वाभाविक है क्योंकि इनमें भावों की गहनता और अर्थ व्यंजना की कमी रहती है। 
     हिंदी में ऐसी छोटी कविताएं जिन्हें सहज रूप से क्षणिकाएं कहा जा सकता है और जिनमें अर्थ व्यंजना के साथ-साथ भावों की गहनता और व्यापकता, आत्मानुभूति की तीव्रता और काव्य तत्व है, अज्ञेय के समय से ही लिखी जा रहीं हैं। ‘अरी ओ करुणामयी’ (1959) की दो प्रसिद्ध छोटी-छोटी कविताओं को उद्धरित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं-  (1)सोन मछली :  ‘‘हम निहारते रूप/कांच के पीछे/हांप रही है मछली/रूप तृषा भी/(और कांच के पीछे)/है जिजीविषा ’’। (2) चिड़िया की कहानी :  ‘‘उड़ गई चिड़िया/कांपी, फिर/थिर/हो गई पत्ती’’।          
     ये कविताएं भले ही ‘क्षणिका‘ के नाम से न लिखी गईं हों लेकिन इन्हें क्षणिका की कोटि में रखने में किसी को हिचक नहीं हो सकती। श्रीकांत वर्मा ने भी ‘मायादर्पण’ में कुछ बहुत अच्छे चित्र प्रस्तुत किए हैं, ‘‘जंगल अवाक’’ शीर्षक से उनकी एक कविता है-  ‘‘जून की दुपहरी, बाज़ का झपट्टा, चिड़िया की चीख/जंगल अवाक्’’। बच्चन के दो काव्य संग्रहों ‘कटती प्रतिमाओं की आवाज़’ और ‘उभरते प्रतिभावों के रूप’ (1968-69) में भी संकलित कुछ छोटी कविताएं क्षणिकाओं की कोटि की ही हैं। इनमें मुख्यतः व्यंग्य का स्वर है- 01. तुम और मैं :  ‘‘तुमने हमें/पूज पूज कर/पत्थर कर डाला है/वे जो हम पर जुमले कसते हैं/हमें ज़िंदा तो समझते हैं’’। 02. सीढी :  ‘‘मैंने छत पर पहुंच कर/सीढी को उपेक्षा से देखा/उसने कहा/‘अच्छा उतरना’।’’  भवानी प्रसाद मिश्र ने भी क्षणिकाएं सरीखी छोटी-छोटी कविताएं खूब लिखी हैं लेकिन वे नीति-वचन और सूक्ति कथन अधिक हैं।
    कादम्बिनी ने शायद सबसे पहले क्षणिकाएं और सीपकाएं नाम से लघु कविताओं को छापना आरंभ किया था। ‘वीणा’ में ‘मनके’ नाम से कुछ छोटी कविताएं छपीं- जैसे, कृष्ण कांत दुबे का यह मनका, जिसमें प्रकृति का एक सुंदर चित्र है- ‘‘बादल में लुका-छिपा/भाग रहा चांद/जैसे खरगोश कोई/ढूंढ रहा मांद’’ इस तरह की सारी कविताएं बिना किसी संकोच के क्षणिकाएं ही कही जाएगीं। 
     आजकल हिंदी में हाइकु लिखने का खूब प्रचलन हो गया है। हाइकु लघुकाय तो हैं ही (इनमें केवल 17 अक्षरों में सिमिटी 5-7-5 अक्षरों की 3 पंक्तियां होती हैं), कविता की अन्य विशेषताएं- जैसे, भावों की गहनता, अभिव्यक्ति की सहजता, अनुभूतियों की तीव्रता आदि, भी इनमें देखी जा सकती हैं। किंतु इन्हें क्षणिकाएं नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ‘एक श्वासी’ होने के बावजूद इन कविताओं का अपना एक प्रारूप है- अक्षरों और पंक्तियों की एक निश्चित गणना है। क्षणिकाओं में इस तरह का कोई बंधन नहीं है। यही कारण है कि दोहों, चौपाइयों आदि, को भी हम क्षणिकाओं की कोटि में नहीं रखते। हां, इन सभी प्रारूपों में एक खास बात है जो क्षणिकाओं में भी समान रूप से पाई जाती है। क्षणिकाओं की तरह ही ये अपने आपमें पूर्ण और स्वतंत्र हैं। पूरी तरह गवाक्षहीन, हर दोहा, हर हाइकु, ग़ज़ल का हर शेर, हर क़तः एक मुक्तक होता है। 
     जब हम क्षणिका के बारे में यह कहते हैं कि वह स्वतः पूर्ण है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपने वातावरण या पारिवेश के प्रति उदासीन है। प्रायः क्षणिकाएं अपने परिवेश के प्रति अत्यंत संवेदनशील होती हैं। सजग और सतर्क रहती है वह सामाजिक विद्रूपों और विषमताओं पर पैनी नज़र रखती है। यही कारण है कि अधिकतर क्षणिकाओं में कटाक्ष और व्यंग्य के स्वर प्रचुर मात्रा में दिखाई देते हैं। 
     क्षणिकाएं जहां मुक्त और स्वतः पूर्ण होती हैं, वहीं वे अतुकांत भी होती हैं। उनमें कहीं कोई तुक यदि दिखाई भी देती है तो वह किसी निश्चित विधान के अनुरूप नहीं होती, किसी नियम का पालन नहीं करती। वह केवल कथन को आकर्षक बनाने के उद्देश्य से लाई जाती है। हां, क्षणिका को लघुकाय होना ज़रूरी है, लेकिन उसकी काया कितनी लघु हो यह भी कहना मुश्किल है। वह चुने हुए अक्षरों की एक पंक्ति भी हो सकती है और 10-12 पंक्तियों की एक कविता भी हो सकती है। बस, इतनी लम्बाई न हो कि उसे लघु कहा ही न जा सके।                                                                         
     उमेश महादोषी, बलराम अग्रवाल, सुरेश सपन जैसे उत्साही रचनाकार आज क्षणिकाओं को साहित्य में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय भाषाओ में क्षणिकाएं रवींद्रनाथ ठाकुर के ज़माने से लिखी जा रही हैं किंतु साहित्य में वे अभी तक हाशिए पर ही पड़ी हैं। हिंदी में लघुकथाओ और क्षणिकाओं का लेखन लगभग साथ-साथ आरम्भ हुआ किंतु लघुकथा ने कहानी के बरक्स अपना एक स्वतंत्र वजूद हासिल कर लिया, पर क्षणिका के साथ ऐसा नहीं हो पाया। वह एक छोटी कविता ही बनकर रह गई। कविता पुस्तकों में कभी-कभी बेशक क्षणिकाएं भी सम्मिलित की गईं किंतु क्षणिकाओं की कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं आई। उमेश महदोषी शायद पहले ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने ‘आकाशमें धरती नहीं है’ (1991) शीर्षक से क्षणिकाओं का एक अलग संग्रह निकाला। उन्होंने पहली बार ‘अंकुर आवाज़’ पत्रिका का एक क्षणिका विशेषांक (1988) भी सम्पादित किया। इससे पहले वे ‘सीपियां और सीपियां’ तथा ‘आहट’ के भी क्षणिका-विशेषांक सुरेश सपन और बलराम अग्रवाल के सह-संपादन में निकाल चुके हैं। डॉ. महादोषी की लगभग सभी क्षणिकाएं अतुकांत हैं और यथार्थ संपोषित हैं। उनका स्वर प्रायः व्यंग्यात्मक है। अपनी एक रचना में वह सावधान करते हैं- ‘‘बहुत लम्बी है/वर्षा की ऋतु/इस बार सावधान रहना/सूरज उगता दिखे/लेकिन डूब जाए/ऐसा हो सकता है/बहुत बार’’। एक अन्य यथार्थपरक चित्र देखें- ‘‘छुइयो राम छुइयो राम/धोबी के पटा/पत्थर है, पत्थर तू/पर देख तो ज़रा/धोबी तेरा आज-/कितने टुकड़ों में बंटा’’। महादोषी की कुछ कविताएं प्रेम और सौंदर्य को भी रचनात्मक वाणी देती हैं- ‘‘सूर्य का यथार्थ/स्वीकारते हुए/चंद्र की शीतलता को/कितना ही अनदेखा किया/पर मोहिनी सूरत वह/मैं भुला नहीं पाया/आंखों में आज फिर/उसका चित्र उभर आया’’।  
     जहां डॉ. महादोषी अपने प्रेम प्रसंग को भुला नहीं पाते, वहीं बलराम अग्रवाल उससे दूरी बना कर रखने में शायद अधिक विश्वास रखते हैं- ‘‘मेरे तुम्हारे बीच/इतना अंतर रहा/तुम जिधर भी गईं/मैं समानांतर चला’’। सुरेश सपन की क्षणिकाओं में समाज में व्याप्त असमानता की गूंज बड़ी तीव्रता से सुनी जा सकती है। वे अर्थ के धरातल पर भूगोल से उलझते हैं और कहते हैं- ‘‘बड़ी आंत/झपट लेती है-/छोटी का हिस्सा/जब मैं खाता हूं- मालपुए/और तब भी/जब/मैं खाता हूं बाजरे की सूखी रोटी‘‘। 
     डॉ.स्वर्ण किरण अपने रिसते ज़ख़्म पर दिखावटी सहानुभूति प्रदर्शित करने वालों से और भी दुःखी हैं- ‘‘पुरवा के झोंकों से/पोर पोर दुखता है/बूंद बूंद रिसता है ज़ख्म/सहानुभूति के हाथ/आलपीन चुभाते हैं/और आंखें छलछला आती हैं’’। लेकिन हेमंत दोषी में यह सिनिक भाव पूरी तरह अनुपस्थित है। वे कहते हैं- ‘‘सुबह की प्रतीक्षा/समाप्त नहीं होगी कभी/चिड़िया/तुम उड़ना शुरू करो/सूरज छुपा है/तुम्हारे पंखों में’’। 
     आजकल ‘‘नेट’’ पर कुछ बहुत अच्छी क्षणिकाएं प्रस्तुत की जा रही हैं। उन्हें पढ़/देख कर क्षणिकाओं का भविष्य निःसंदेह उजला दिखाई देता है। इनमें वक्त की आवाज़ है और वक्त से लड़ने का माद्दा भी है। अविराम ब्लोग पर मार्च 2013 अंक में डॉ. मिथिलेश दीक्षित कहती हैं- ‘‘हंस...हंस दे/कल/न जाने/काल क्या कर दे’’। अनिता ललित नवम्बर 2012 अंक में दुःखी मन से कहती हैं- ‘‘हाथ उठाकर दुआओं में/अक्सर तेरी खुशी मांगी थी मैंने/नहीं जानती थी/मेरे हाथों की लकीरों से ही/निकल जाएगा तू’’। लेकिन ज्योति कालड़ा का दुःख व्यकिगत नहीं है, वे कहती हैं- ‘‘राम और अल्लाह का वास्ता देकर/पहले झगड़ों को/सुलझाया जाता था/आज/सुलगाया जाता है’’। महावीर रवांल्टा एक ग़रीब और शोषित का एक सम्वेदनशील चित्र कुछ इस तरह खींचते हैं- ‘‘मैंने पसीने से तर/कमीज़ को/निचोड़ना चाहा/लेकिन क्या देखता हूं कि रक्त का/एक एक क़तरा निकल रहा है’’। इतना सब होते हुए भी अनिल जनविजय आशा का दामन नहीं छोड़ते, क्योकि- ‘‘बेचैन होते हैं/फड़फड़ाते हैं/पेड़ों से टूट कर गिर जाते हैं/पुराने पत्ते/नयों के लिए/यह दुनिया छोड़ जाते हैं’’।
     काव्यांचल डॉट कॉम में विष्णु प्रभाकर और भगवत रावत जैसे प्रतिष्ठित कवियों की क्षणिकाओं को प्रकाशित किया है। विष्णु प्रभाकर की इन क्षणिकाओं का आस्वादन करें- 1. इतिहास : ‘‘आदमी मर गया कभी का/पीढियां ज़िंदा हैं/सूरज बुझ जाएगा एक दिन/पर आकाश अमर है/सूरज के बिना/वह आकाश कैसा होगा?‘‘। 2. डूबना : ‘‘मैंने उसकी कविता पढ़ी/शब्द थे केवल उन्नीस/पर मैं डूबा तो/डूबता ही चला गया/अवश, अबोध, आकंठ’’। 3. बिके हुए लोग : ‘‘चुके हुए लोगों से/ख़तरनाक हैं/बिके हुए लोग/वे/करते हैं व्यभिचार/अपनी ही प्रतिभा से’’।     
     विष्णु प्रभाकर जहां बिके हुए लोगों कि प्रतिभा पर व्यंग्य करते हैं वहीं भगवत रावत उनके डर को रेखांकित करते हैं- ‘‘हमने उनके घर देखे/घर के भीतर घर देखे/घर के भी तलघर देखे/हमने उनके/डर देखे’’। आज की क्षणिकाओं में यथार्थ-बोध को पर्याप्त स्थान मिला है और उनमें व्यंग्य का स्वर भी मुखर हुआ है।
    पिछले वर्ष (2012) में मेरा एक कविता संग्रह, ‘‘उसके लिए’’ प्रकाशित हुआ था। इसमें मुख्यतः प्रेम और प्रकृति विषयक छोटी छोटी कविताएं थीं। समीक्षार्थ उसे मैंने ‘अविराम’ के सम्पादक डॉ. उमेश महादोषी को भेजा था। महादोषी जी ने इन कविताओं को क्षणिकाओं की कोटि में रखा है। इसकी कुछ कविताएं उन्होंने क्षणिकाओं के शीर्षक से ही अविराम में प्रकाशित कीं और कुछ अन्य को ‘अविराम ब्लॉग’ में भी डाल दिया। मैंने कभी सोचा भी न था कि ये कविताएं कभी क्षणिकाओं के रूप में प्रकाशित होंगी। 
    ऐसी लघुकाय कविताएं मेरी वर्षों से प्रकाशित होती रहीं हैं। शायद सबसे पहली ऐसी कविता 1966 में ‘आजकल’ में प्रकाशित हुई थी। ‘कुकुरमुत्ता’ शीर्षक था उसका- ‘‘यह जिसे तुम कुकुरमुत्ता कह रहे हो/है नहीं बरसात के पानी की उपज/यह हृदय की ज्वाल में/उबला-उबला दर्द है/ऊपर उफन कर आ गया है/यह जिसे तुम कुकुरमुत्ता कह रहे हो’’।  
     इसी प्रकार अज्ञेय जी ने 1977-78 में ‘नया प्रतीक’ में मेरी कई छोटी कविताओं को प्रकाशित किया। उनमें मुझे याद है, एक कविता ‘रजनी गंधा’ शीर्षक की भी थी- ‘‘रजनीगंधा अपने शत शत/हाथ ऊपर उठाए/सावधान खड़ी है/आसमान कभी गिर ही पड़े/तो उसे संभालने वाला/कोई तो हो’’।  
     ‘‘उसके लिए‘‘ की कुछ कविताएं ‘वागर्थ’ और ‘वीणा’ में ‘प्रेम कविताएं’ शीर्षक से 2006-07 में प्रकाशित हो चुकी थीं, लेकिन इसमें की कुछ अन्य कविताएं ‘कुछ क्षणिकाएं’ शीर्षक से, पुस्तक प्रकाशन के पूर्व ही, मार्च-अप्रैल 2012 में ‘अक्षरा’ में प्रकाशित हुईं। यह शायद पहला अवसर था कि मेरी कविता को क्षणिका कहा गया। 
     क्या मेरी छोटी कविताएं सचमुच क्षणिकाएं कही जा सकती हैं? यह निर्णय तो अब सुधी पाठक ही लेंगे, किंतु उन्हें रचते समय मेरे मन में यह भाव कभी नहीं था कि मैं क्षणिकाओं की रचना कर रहा हूं। 

  • 10, एच.आई.जी./1, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद-211001, उ.प्र.



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’



क्षण की अनुभूति की गहनता है क्षणिका

कण से ब्रह्माण्ड तक, बिन्दु से सिन्धु तक क्षण से युगों तक चेतना का विस्तार है। स्वनिम से शब्द तक, शब्द से अर्थ तक मानव का चिन्तन अभिव्यक्त हो रहा है। इन सभी का महत्त्व जीवन की सार्थकता में ही समाहित है। सही समय पर किसी कण का, किसी क्षण का, किसी स्वनिम का सही प्रयोग किया तो सार्थक रचना का निर्माण होता है, चाहे वह जीवन-जगत हो या काव्य हो। जीवन भर कुछ न किया जाए तो जीवन निर्रथक, क्षण भर में जो सार्थक कर लिया जाए तो यश, जीवन भर अच्छा करते-करते अन्ततः कुछ बुरा कर दिया जाए तो सारे शुभकर्मों की परिणति अपयश में हो सकती है। यही सब काव्य के भी साथ है।
     क्षण या काल के विस्तार की गहनता, उसकी नब्ज़ पर पकड़ किसी रचना की प्राण शक्ति बनती है। रचना का महत्त्व उसके स्वरूप दोहा, चौपाई, छन्दोबद्ध, छन्दमुक्त, क्षणिका, हाइकु आदि से नहीं है, वरन् उसके कथ्य से है, कथ्य की प्रस्तुति से है, उसमें निहित भाव-संवेदना से है। केवल छोटी रचना लिखना या बड़ी रचना लिखना किसी महत्त्व का आधार नहीं बन सकता। आकार्गत लघुता के कारण फुलचुही महत्त्वहीन नहीं हो जाती और बड़े आकार के कारण चील का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। कारण- रचना में कही बात पाठक की संवेदना को, चिन्तन को कितना प्रभावित करती है, वही उस रचना का जीवन है। क्षणिका के सन्दर्भ में भी मैं यही बात कहना चाहूँगा कि समय के किसी महत्त्वपूर्ण क्षण को आत्मसात् करके संश्लिष्ट (संक्षिप्त नहीं) रूप में किया गया काव्य-सर्जन ही क्षणिका है। क्षणिका किसी लम्बी कविता का सारांश नहीं है और न मन बहलाने के लिए गढ़ा गया कोई चुटकुला या चुहुलबाज़ी-भरा कोई कथन। भाव की अभिकेन्द्रिकता, भाषा का वाग्वैदग्ध्य-पूर्ण प्रयोग एक दिन का काम नहीं, वरन् गहन चिन्तन-मनन, अनुभूत क्षण की सार्थकता और सार्वजनीनता पर निर्भर है।
     जिस रचनाकार के चिन्तन और अनुभव का फलक जितना व्यापक होगा, भाषा-व्यवहार जितना अर्थ-सम्पृक्त होगा, क्षणिका उतनी ही प्रभावशाली और मर्मस्पर्शी और मर्मभेदी होगी। आकारगत लघुता को खँगालने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं। भारतीय वाङ्मय ही इसके लिए पर्याप्त है। निम्न उदाहरणों से क्षणिका की प्रगाढ़ता, व्यंजना और घनत्व को समझा जा सकता है- ‘‘एक आदमी/रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/एक तीसरा आदमी भी है//जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूँ-/‘यह तीसरा आदमी कौन है?’/मेरे देश की संसद मौन है।‘‘  (रोटी और संसद-धूमिल)। इस तीसरे आदमी की तलाश कहीं बाहर नहीं करना है। संसद की चुप्पी ही उसकी उपस्थिति दर्ज़ करा रही है।
     क्षणिका-एक लक्ष्य (टारगेट) और एक ही गोली, यदि गोली लक्ष्य से भटकी तो उपलब्धि- शून्य अंक। यह मेले का खेल नहीं कि दस में से नौ टारगेट पा गए तो अच्छे निशानेबाज हो जाएँगे। शत्रु सामने हो तो कोई भी कुशल सैनिक जिसके पास एक ही गोली बची हो, अपना लक्ष्य नहीं खोना चाहेगा। क्षणिका की इसी तार्ह की त्वरा धूमिल की पंक्तियों में नज़र आती है। इसमें लम्बी कविता की तरह सँभलने का कोई अवसर नहीं। अज्ञेय की ‘साँप’ कविता में सभ्यता की परिभाषा करते हुए वही तीक्ष्णता गहन लाक्षणिकता लिये नज़र आती है- ‘‘साँप!/तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना/भी तुम्हें नहीं आया।/एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे)/तब कैसे सीखा डँसना/विष कहाँ पाया?’’
      क्षणिका में विविध भाषिक प्रयोग का केवल सन्तुलित अवसर और अवकाश होता है। अगर वह सहजात नहीं हुआ तो दुर्बाेध होने के साथ बेअसर भी हो सकता है। बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्ति के समय इसका विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। भाषा की सहजता शब्दों के सरल या कठिन होने से नहीं वरन्  भावबोध की स्पष्टता पर आधारित होती है। यदि रचनाकार के भाव और विचार उलझे हुए हैं, तो सरल शब्दों में भी अभिव्यक्ति जटिल हो सकती है। पानी-पत्थर और स्टेच्यू के प्रतीकों का स्वाभाविक  समावेश, भाषा का सहज और सन्तुलित प्रयोग इन क्षणिकाओं में देखा जा  सकता है। दोनों रचनाएँ समय के शाश्वत सच की व्याख्या करती हैं- 1. ‘‘बहते हुए पानी ने/पत्थरों पर निशान छोड़े हैं/अजीब बात है-/पत्थरों ने/पानी पर/कोई निशान नहीं छोड़ा’’ (पानी-नरेश सक्सेना)।  2. ‘‘जी चाहता है/उन पलों को/तू स्टैच्यू बोल दे/जिन पलों में/‘वो’ साथ हो/और फिर भूल जा... (स्टैच्यू बोल दे- डॉ जेन्नी शबनम)
     वृद्धावस्था की उपेक्षा और प्यार की खत्म होती गर्माहट को डॉ सुधा ओम ढींगरा और तुहिना रंजन ने पतझर के माध्यम से बहुत मार्मिक स्वरूप प्रदान किया है। शब्दों का नपा-तुला प्रयोग अभिव्यक्ति को बहुत मार्मिक बना देता है- "झड़े पत्तों से/टुण्ड-मुण्ड हुए/वृक्ष,/बच्चों के/घर छोड़कर/जाने के बाद/बुज़ुर्ग माँ-बाप से लगे।" (अकेलापन :  डॉ सुधा ओम ढींगरा)। ‘‘तेरे इंतज़ार में /जिन आँखों से/बरसे अनगिन सावन/कल देखा -/उन्ही आँखों में/पतझड़ उतर आया है’’ (तुहिना रंजन )
     रात-दिन घर गिरस्ती में मरती-खटती अत्याचार सहती औरत की हूक-भरी व्यथा को रचना श्रीवास्तव ने बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। दैनन्दिन जीवन का यह अभिशाप सांकेतिक रूप से चित्रित हुआ है, जिसमें हल्दी-प्याज का लेप सारी व्यथा-कथा कह जाता है- ‘‘उनके कुछ कहते ही/एक भारी रोबीली आवाज/और कुछ कटीले शब्द/यहाँ वहाँ उछलने लगे/रात मैंने देखा-/माँ /अपनी ख्वाहिशों पर/हल्दी- प्याज का लेप लगा रही थी ’’। सुदर्शन रत्नाकर- टूटे काँच के टुकड़े से आहत मन  की- ‘‘टूटे काँच के टुकड़े तो/तुमने उठा लिये/उनका क्या जो/मेरे दिल के हुए’’  और डॉ.भावना कुँअर पर्स की तहों में लिपटी निशानियों से ‘रिश्तों की घुटन’ का तीव्रता से अहसास कराती हैं- ‘‘तुम्हारे पर्स की तहों में/लिपटी रहती थी यादें बनी/मेरी नन्हीं निशानियाँ/आज वहाँ किसी की/तस्वीर नज़र आती है’’
     रिश्तों की गर्माहट का अस्तित्व बनाए रखने के लिए क्या किया जाए, इसका उपाय है निजता और सामीप्य, जिसे मंजु मिश्रा  की इस क्षणिका में देखिए- ‘‘बैठने दो/दो घड़ी अपने पास/बस इतना हक़ दो कि/पूछ सकूँ-/तुम क्यों उदास हो?’’। कोई विधा  अपने आकार-प्रकार से या किसी वरिष्ठ की कलम से रची होने के कारण नहीं वरन् प्रभावान्विति होन से ही महत्त्वपूर्ण होती है। क्षणिका का जनमानस से जुड़ना बहुत आवश्यक है। प्रेम की संवेदना को उँगली में चुभा काँटा और उसका चले जाना अधिक तीव्र कर देता है। अभिव्यक्ति-लाघव की सादगी और कौशल प्रसिद्ध हाइकुकार डॉ. सुधा गुप्ता जी के काव्य में अनुस्यूत रहे हैं। अन्तिम वाक्य के .... भी अपनी अनकही उपस्थिति से बहुत कुछ कह जाते हैं- ‘‘गुलाब की नन्हीं  कली/तोड़, तुम्हारे बालों में/सजा दी/उँगली में चुभा काँटा /रहा याद दिलाता/कि तुम चली गई....’’। प्यार का यही अटूट मिलन-माधुर्य, यही जीवन के प्रति चुम्बकीय  आकर्षण इन क्षणिकाओं को किसी भी प्रेम-कविता की टक्कर में खड़ा करता है- ‘‘छुओ छलको/मिलो मुझसे गीत गाकर/मिले जैसे नदी सागर/पास आकर’’ (मिलन- केदारनाथ अग्रवाल)। ‘‘मुस्कुराने की/कोशिशें हजार करता है/सुना है वो/अब भी ज़िंदगी से /प्यार करता है!’’  (डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा)। केदारनाथ सिंह प्यार की इसी गर्माहट को नपे-तुले शब्दों में अनायास कह जाते हैं। पाठक है कि प्यार की उस गर्माहट को परत-दर-परत महसूस करता है- ‘‘उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए/मैंने सोचा-/दुनिया को/ हाथ की तरह/गर्म और सुन्दर होना चाहिए’’ (केदार नाथ सिंह)। कवि के लिए कोई विषय या क्षण छोटा-बड़ा नहीं है, बड़ा है वह भाव-बिम्ब जो आत्मीयता के रस से सम्पृक्त है। माँ का बेटी के बालों में कंघी करना शब्दों से परे बहुत कुछ कहा जाता है। भाषा की परिधि से बाहर निकलकर और अधिक कहना क्षणिका की ताकत है- ‘‘माँ बेटी के बालों में/कंघी करती हुई/एक स्पर्श लौटा रही है-/जो मिला था उसे/कभी अपनी माँ से’’ (स्पर्श- रमेश अग्रवाल)। अलका सिन्हा ने ‘ज़िन्दगी की चादर’ क्षणिका में चढ़ती उम्र की लड़की के जीवन की विवशता को उसकी चौकसी से जोड़कर जिस तीव्रता से अभिव्यक्त कर गई, उसमें इनका भाषिक-कौशल हर पंक्ति को तान देता है। नींद में होने पर भी सजगता में जैसे लाज के साथ एक अज्ञात भय भी समाहित है- ‘‘ज़िन्दगी को जिया मैंने/इतना चौकस होकर/जैसे की नींद में भी रहती है सजग/चढ़ती उम्र की लड़की/कि कहीं उसके पैरों से/चादर न उघड़ जाए’’। डॉ जेन्नी शबनम प्यार को ‘परवाह’ से जोड़ती है- ‘‘कई बार प्रेम के रिश्ते फाँस-से/चुभते हैं/इसलिए नहीं कि/रिश्ते ने दर्द दिया/इसलिए कि/रिश्ते ने परवाह नहीं की/और प्रेम की आधारशिला परवाह होती है!’’ और सहज भाव से एक बड़ी बात कह जाती हैं, वहीं दूसरी ओर अनिता ललित हाथ उठाकर दुआ करने के परिणाम की जो कल्पना करती हैं, वह अपनी अभिव्यक्ति की अन्तरंगता नवीनता से पाठक को बाँध लेती है- ‘‘हाथ उठाकर दुआओं में/तेरी खुशियाँ माँगी थी मैंने/नहीं जानती थी-/मेरे हाथों की लक़ीरों से ही निकल जाएगा तू....!’’
       काव्य में लौकिक प्रतीकों और जन-जीवन से जुड़े बिम्बों की एक अलग खुशबू होती है। उमेश महादोषी ने धोबी और पटा (जिस पर पट पर वह कपड़े धोता/पछाड़ता है) का निर्वाह बहुत सन्तुलित रूप में किया है। धोबी की दुर्दशा भी अभिव्यक्त हो रही है, जिससे निकटवर्ती नाता रखने वाला यदि कोई है, तो सिर्फ़ वही पटा है। ‘छुइयो राम, छुइयो राम’ का लौकिक प्रयोग जन-संस्कृति का परिचायक ही नही, बल्कि उस पूरे परिवेश को भी वाणी देता है, जीवन-संघर्ष जारी है- ‘‘छुइयो राम, छुइयो राम/ धोबी के पटा/पत्थर है, पत्थर तू/पर देख तो ज़रा/धोबी तेरा आज-/ कितने टुकड़ों में बँटा!’’। लौकिक खेल में ‘धप्पा’ मीनाक्षी जिजीविषा की इस क्षणिका में परिचय के व्याज से सुधियों में समाए प्यार की एक भोली-सी अनुगूँज छोड़ जाता है- ‘‘तुमसे परिचय/जैसे बचपन के खेल-खेल में/ज़िन्दगी अचानक/पीछे से पीठ पर हाथ रखे/और धीरे से कान में कहे -/ धप्पा....!’’ चाँद के दाग के बहुत सारे मिथक हैं, लेकिन डॉ जेन्नी शबनम ने यहाँ एक नया प्रयोग किया है- शैतान बच्चे के बहाने, भोलेपन के रस में पगा। वह शैतान बच्चा कुछ भी कर सकता है- ‘‘ऐ चाँद/तेरे माथे पर जो दाग है/क्या मैंने तुम्हें मारा था?/अम्मा कहती है/मैं बहुत शैतान थी/और कुछ भी कर सकती थी’’
     सारा काव्य मानव-जीवन से जुड़ा है। यदि कवि केवल विचारों का घटाटोप प्रस्तुत करने की अनुभवहीनता का परिचय देता है तो क्षणिका के लघु कलेवर में जीवन-दर्शन प्रस्तुत करना उबाऊ हो सकता है। खुद लिखें और खुद ही समझें वाले रचनाकार खुश हो सकते हैं कि उन्होंने नाज़ुक पंखों की इस चिड़िया पर कई किलो बोझ लाद दिया है। इसके विपरीत इमरोज़ और सर्वेश्वर की क्षणिकाओं में जीवन-दर्शन किसी बोझिल व्याख्या का नहीं वरन् घाटियों में कल-कल करती पतली निर्मल जलधारा का अहसास कराता है- ‘‘जीने लगो/तो करना/फूल ज़िंदगी के हवाले/जाने लगो/तो करना/बीज धरती के हवाले...’’ ( ज़िंदगी -इमरोज़)। ‘‘घास की एक पत्ती के सम्मुख/मैं झुक गया/और मैने पाया कि/मैं आकाश छू रहा हूँ’’ (समर्पण -सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)। ‘‘मनचाहे की एक महक/होती है/जिसके साथ/घर, ज़िंदगी/महकी-महकी/रहती है.../अनचाहे की/कोई महक नहीं होती...’’  (महक -इमरोज़)। दूसरों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोंण का प्रभाव बहुत व्यापक होता है। केवल अपने सुख की चिन्ता करने वाले स्वकेन्द्रित लोगों को बलराम अग्रवाल ने सचेत किया है- ‘‘शब्द को/शूल न बनाओ/न सुई बनाकर/हवा में फेंको/फूट जाएँगी/सभी ओर हैं...../मेरी आँखें!’’ जीवन आस्था और विश्वास का नाम है। डॉ. उमेश महादोषी ने सूरज की किरणों से, माथा चूमने से इसे पुख़्ता किया है। कुल मिलाकर आनन्द के जिस गत्यात्मक बिम्ब की सृष्टि की है, वह बहुत मनोहारी होने के साथ सकारात्मक सन्देश भी लिये है। कुशल चितेरा इन पंक्तियों को रंगों में समेट सकता है- ‘‘कल  सुबह/जब मैं उठूँगा/सामने होंगी- मेरा माथा चूमती हुई/कुछ किरणें सूरज की/मैं थोड़ी देर आँखें मूँदूँगा, मुस्कराऊँगा/और फिर/दिन भर के काम पर लग जाऊँगा’’।
      डॉ. उमेश महादोषी ने बरसों से क्षणिका के लिए सार्थक कार्य किया है। दूसरी ओर पूर्णिमा वर्मन ने अनुभूति के माध्यम से विश्वभर की चुनी हुई क्षणिकाएँ प्रस्तुत की हैं; जिससे इस शैली का महत्त्व बढ़ा है। क्षणिका के क्षेत्र में उनका अपना एक अलग अन्दाज़ है, सूरज के आगमन से जीवन को निखारने वाली आस्था की संश्लिष्ट प्रस्तुति की है, ‘उदासी’ की सारी धूल झाड़कर जीवन-अनुराग का सन्देश दिया है- ‘‘फिर उदासी की दरारों से/कोई झाँकेगा/कहेगा- आँख धो लो/जल्द ही सूरज को आना है’’। त्रिभुवन पाण्डेय भी उसी आस्था और आश्वस्ति को ‘घर’ के माध्यम से अपनेपन की एक स्फुलिंग जगा जाते हैं- ‘‘तूफ़ान के गुज़र जाने के बाद/ हर बार गाती रहती है/चिड़िया छत पर/घर/जहाँ कुछ भी नहीं/लेकिन सब कुछ होने का/आश्वस्ति-भरा स्वर/घर‘‘। कमला निखुर्पा इसी आस्था को ‘दीप’ क्षणिका के माध्य्म से इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं- ‘‘दीप भावों के/महकती चाहों के/जलाना ज़रूर/सूना-सा कोना मन का/झिलमिलाएगा ज़रूर’’। प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को इस नन्ही-सी क्षणिका में पिरोना, बिम्बों को साधना भाषा की कुशलता के बिना सम्भव नहीं। अज्ञेय की ये क्षणिकाएँ बहुत मुखर हो उठी हैं- ‘‘सूप-सूप भर/धूप-कनक/यह सूने नभ में गयी बिखर: /चौंधाया/ बीन रहा है/उसे अकेला एक कुरर‘‘ ( अज्ञेय)। नन्दा देवी पर केन्द्रित अज्ञेय की 14 क्षणिकाओं में से एक यह, जिसका समापन केवल के साथ नहीं बल्कि .... के साथ हुआ है- ‘‘निचले/हर शिखर पर/देवल-/ऊपर/निराकार/तुम/केवल...’’। रंजना भाटिया गुलमोहर के फूल के चित्रण में दृश्य और स्पर्श बिम्ब को अनायास अहसास करा जाती हैं- ‘‘गुलमोहर के फूल/ जैसे हाथ पर कोई/अंगार है जलता’’। डॉ अनीता कपूर ने रात्रि के सौन्दर्य का बहुत सुन्दर और प्रभावी दृश्य बिम्ब प्रस्तुत किया है। ‘‘चाँद का गोटा’ एक नया ही भाव-बोध उजागर करता है- ‘‘चाँद का गोटा लगा/किरणों वाली साड़ी पहने/सजी सँवरी रात ने/ बन्द कर दिया/दरवाज़ा आसमान का’’
     उपर्युक्त बातों से मेरा मन्तव्य इतना भर है कि काव्य का कोई भी रूप हो वह यदि भाव-विचार-कल्पना से संवलित नहीं होगा, तो वह कुछ भी हो, पर काव्य नहीं होगा। आदमी का सुख-दुख, हर्ष-विषाद, जो शब्द न बाँध सकें वे माला का हिस्सा नहीं बन सकते। विषयवस्तु और प्रस्तुति दोनों का सार्थक संयोजन, संगुम्फन महत्त्वपूर्ण है, तभी रचना निखर सकती है। डॉ सुरेन्द्र वर्मा की क्षणिका ‘आस्तीन तुम्हारी’ इसका खूबसूरत उदाहरण हो सकती है- ‘‘यों तो तुम्हारी आँखों में/झिलमिलाती चमक थी/लेकिन मैंने अपना सिर/जब तुम्हारे/कन्धे पर टिकाया/आस्तीन तुम्हारी गीली थी’’। और ये आँसू यूँ ही नहीं मिल जाते, इनको पाने के लिए भी सौदा करना पड़ता है। जितेन्द्र जौहर ने यह सौदा मिठास चुकाकर इस प्रकार किया है- ‘‘मैंने /मिठास चुकाई है,/तब जाकर मिला है मुझे/तुम्हारा खारापन...!/ऐ आँसुओ!/तुम्हें...यूँ न जाने दूँगा /आँखों की दहलीज़ छोडकर...!’’ 
      न शूल-सी चुभे न कील-सी खुभे, बस आस्तीन बनकर आँसू पोंछ दे तो क्षणिका सार्थक हो जाएगी। आस्तीन बनकर आँसू पोंछने का मेरा अपना आशय है- वह जनमानस की प्रतिनिधि बने। किसी दोहे, चौपाई, मुक्तक को तोड़कर क्षणिका बनाने या तुकबन्दी का अनावश्यक शिरस्त्राण पहनाने की आवश्यकता नहीं है। सारगर्भित रचनात्मकता के लिए यह क्षेत्र खुला है, इसे रातों-रात प्रसिद्धि पाने का शॉटकट मानना भूल होगी। अच्छी रचना, रचनाकार के लिए खुद पथ का निर्माण और ऊँचाई का निर्धारण करती है।

  • फ्लैट न-76,(दिल्ली सरकार आवासीय परिसर), रोहिणी सैक्टर-11, नई दिल्ली-110085


जितेन्द्र ‘जौहर’



क्षणिका :  एक विधागत विवेचन

{जितेन्द्र जौहर जी का यह आलेख अविराम साहित्यिकी व सरस्वती सुमन पत्रिकाओं में प्रकाशित मूल प्रारूप से कुछ भिन्न है। दरअसल अविराम साहित्यिकी में प्रकाशन के बाद उन्होंने इसे परिवर्द्धित कर हमें इस परामर्श के साथ पुनः भेजा था कि इन्टरनेट पर इसे परिवर्द्धित रूप में ही रखा जाये।}

बात शुरू करता हूँ, प्रभविष्णु साहित्यकार स्व. विष्णु प्रभाकर की एक ‘क्षणिका’ से- ‘‘मैंने उसकी कविता पढ़ी/शब्द थे केवल उन्नीस/पर मैं डूबा तो-/डूबता ही चला गया-/अवश, अबोल, आकंठ!’’
    उपर्युक्त उद्धरण का उद्देश्य ‘क्षणिका-सृजन’ का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करना नहीं, बल्कि ‘क्षणिका-विमर्श’ के एक आवश्यक संदर्भ से जुड़ना है। यहाँ प्रभाकर जी का अभीष्ट ‘उसकी कविता’ के माध्यम से किसी कवि-विशेष अथवा कविता-विशेष की ओर संकेत करना नहीं जान पड़ता है। वस्तुतः यहाँ वे क्षणिका के ‘लघु कलेवर’ में समाये चिंतनपूर्ण कथ्य की ‘गहन अभिव्यक्ति’ की ओर इशारा कर रहे हैं, जो कि क्रमशः ‘शब्द थे केवल उन्नीस’ (लघु कलेवर), ‘मैं डूबा तो डूबता ही चला गया’ (गहन अभिव्यक्ति) और ‘अवश-अबोल-आकंठ’ (प्रभावान्विति) से स्पष्ट हो रहा है। यहाँ रोचक तथ्य तो यह है कि स्वयं प्रभाकर जी की उपर्युक्त ‘क्षणिका’ में भी उन्नीस शब्द ही हैं! शायद यह संयोगवश नहीं है। यहाँ उन्होंने ‘क्षणिका’ को परिभाषित किये बिना ही, परिभाषा-सम्बन्धी कुछ संकेत कर दिये है। मेरी विनम्र राय में, यहाँ ‘क्षणिका’ के संदर्भ में तीन प्रमुख बिन्दु उभरकर सामने आये हैं- 
1. आकार की लघुता। 2. अभिव्यक्ति की गहराई। 3. प्रभाव की व्यापक परिधि।
      जब हम अभिव्यक्ति की बात करते हैं, तो अनुभूतियाँ उसके पार्श्व से स्वमेव झाँकने लगती हैं। अतः प्रभाकर जी द्वारा संकेतित उपर्युक्त बिन्दु-त्रय में, मैं एक चौथा महत्त्वपूर्ण बिन्दु अपनी ओर से जोड़ना चाहूँगा- ‘अनुभूति की तीव्रता’! इसमें कोई दो राय नहीं कि अभिव्यक्ति का ‘अनुभूति’ से गहरा रिश्ता है; अनुभूतियाँ जितनी गहन होंगी, अभिव्यक्ति उतनी ही सघन एवं प्रखर होने की संभावना बढ़ जाती है। यह और बात है कि अनुभूतियों का धनी हर रचनाकार अभिव्यक्ति का भी धनी हो, यह आवश्यक नहीं है। अनुभूतियों की सम्यक् एवं प्रभावशाली अभिव्यक्ति एक कला है, जिसमें सभी लेखकगण समान रूप से निपुण नहीं होते हैं। यहाँ सच यह भी है कि अभिव्यक्ति का यह कलात्मक नैपुण्य किसी रचना-विशेष के स्तर-निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मेरी सीमित पहुँच के अन्तर्गत उपलब्ध ‘क्षणिका-संसार’ के एक लघु सर्वेक्षण के दौरान मुझे अनेक क्षणिकाकारों के बीच समकालीन कवि एवं संपादक डॉ. उमेश महादोषी की भी एक क्षणिका दिखी, जिसमें आकार की लघुता, अनुभूति की तीव्रता, अभिव्यक्ति की सघनता और प्रभाव की व्यापक परिधि के चारों महत्त्वपूर्ण पहलुओं का समुचित निर्वाह हुआ है। साथ ही, सम-सामयिक शोषणवादी मानसिकता की प्रतीक और बिम्बयुक्त/चित्रात्मक अभिव्यक्ति ने इस क्षणिका को और भी भावगर्भित एवं ग्राह्य बना दिया है। यहाँ क्षणिकाकार अ-तुकान्त मुक्तछंद (फ्री-वर्स विदआउट राइम स्कीम) का शिल्प लेकर सामने आया है- ‘‘गंगू की आँख में/सरसों उगी/और मस्तक में/कोल्हू चला/पर/ लटकाकर उल्टा/उसके भाग्य को छत से/सारा तेल/राजा भोज पी गया!’’ (वर्तमान साहित्य, मई 1989, पृ. 33)
    ‘प्रयोगवाद’ के जनक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की ‘साँप शीर्षक कविता भी ‘क्षणिका’ का बहुचर्चित उदाहरण है। उनकी एक ‘छंद’ शीर्षक क्षणिका देखें, जिसमें ‘सन्नाटे का छंद’ की प्रयुक्ति ने क्षणिकाकार की अभिव्यक्ति में चार चाँद लगा दिये हैं। यहाँ अज्ञेय ने स-तुकांत मुक्तछंद (फ्री-वर्स विद राइम स्कीम) का चयन किया है। यहाँ ‘रूपकोपमा’ की सुन्दर आलंकारिकता भी द्रष्टव्य है। यह इस ‘क्षणिका’ की सफलता है कि ‘क्षण-भर’ का यह ‘लघुकाय’ सृजन पाठकों को आत्म-चिंतन के ‘व्यापक व्योम’ में विचरण करने पर विवश कर देता है। ग़ौर कीजिए- ‘‘मैं सभी ओर से खुला हूँ/वन-सा,/वन-सा अपने में बन्द हूँ/शब्द में मेरी समाई नहीं होगी/मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।’’    
       कई बार बहुत लम्बी कविताएँ उतना प्रभावपूर्ण संप्रेषण नहीं कर पातीं, जितना कि एक क्षणिका-रूपी लघु रचना कर देती है। कविवर धूमिल की निम्नांकित रचना देखें, जो चिंतन को कुरेदती है, एक महत्त्वपूर्ण प्रश्घ्न उभारती है। साथ ही, व्यंग्य की धार ऐसी कि दिमाग़ झनझना जाय- ‘‘आज़ादी/क्या तीन थके हुए रंगों का नाम है/जिन्हें एक पहिया ढोता है/या इसका कुछ मतलब भी होता है?’’ (अभिनव प्रयास, अक्टू-दिसम्बर 2011, स्तम्भ :  ‘तीसरी आँख’, पृ. 62)
         इसी क्रम में, प्रख्यात साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र की ‘कला’ शीर्षक से प्रकाशित एक रचना देखें, जो क्षणिका-विधा की कसौटी पर पूर्णतः खरी उतरती है- ‘‘समाज उसके लिए रंगमंच है/और कला उसकी मेधा की क्रीड़ा है/वह कलाकार होने के साथ मनुष्य भी है/कहना कितनी बड़ी पीड़ा है।’’ (अक्षरम् संगोष्ठी: जनवरी-मार्च 2012, आवरण-2)
         संक्षिप्तता में प्रभविष्णुता: जीवन की अनुभूतियों का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण होता है। ‘क्षणिका’ किसी क्षण-विशेष की तीव्र अनुभूति को गहन अभिव्यक्ति देने वाली विधा है। हमारे मस्तिष्क में उभरने वाले विचारों की कौंध कमोवेश ‘मेघविद्युत’ से अपना सादृश्य स्थापित करती है। यहाँ ग़ौरतलब है कि ‘क्षणिका’ का एक अर्थ ‘मेघविद्युत’ भी है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘लाइटनिंग’ कहा जाता हैं। ‘क्षणिका’ को इस विशिष्टार्थ से जोड़ते ही स्थिति कमोवेश स्पष्ट हो जाती है। जिस प्रकार आकाशीय बिजली की कौंध से चतुर्दिक एक दीप्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार हर श्रेष्ठ क्षणिका स्वयं में ‘अर्थ-दीप्ति’ का स्रोत समेटे होती है। उसमें घनवल्लरी की-सी ‘गतिमयता’ होती है। उसमें ‘अर्थ का विस्फोट’ पाठक को चमत्कृत कर देता है। चिंतन की ऊँचाई और भावों की गहराई, इतर काव्य-विधाओं की तरह क्षणिका को सफल बनाती है। उसके प्रभाव में श्रीवृद्धि करती है। संक्षिप्तता में प्रभविष्णुता ‘क्षणिका’ का प्राण-तत्त्व है! क्षणिका में उक्त ‘संक्षिप्तता, सघनता एवं प्रभविष्णुता’ नाम्नी गुण सीधी-सपाट अभिव्यक्ति से परे यथोचित प्रतीकों और बिम्बों के संतुलित प्रयोग से उत्पन्न होता है। क्षणिका को किसी भाव, विचार, विषय, घटना, प्रसंगादि के वर्णन-विस्तार, दीर्घ विवेचन, विशद विश्लेषण आदि का भार-वाहक बनाने से उसका ‘क्षणिकापन’ आहत हो जाता है। तब वह ‘क्षणिका’ के बजाय ‘दीर्घिका’ (?) बन जाती है, यानी मुक्तछंद/छंदमुक्त की सामान्य तौर पर प्रचलित कविता। इस संदर्भ में सीधे-सपाट शब्दों में कहें तो पंक्तियों की बढ़ती हुई संख्या ‘क्षणिका’ को ‘दीर्घिका’ (?) की ओर ले जाती है। 

क्षणिका की वंश-परम्परा : 
 हिन्दी में ‘क्षणिका’ का वंश-वृक्ष प्रत्यक्षतः मुक्तछंद काव्य-परम्परा से जुड़ा है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध समकालीन लघुकथाकार एवं समीक्षक बलराम अग्रवाल भी मानते हैं- ‘‘पारम्परिक छंद-विधान से मुक्त कविता के जितने भी आन्दोलन हुए, लगभग सभी के दौरान क्षणिका-लेखन हुआ और प्रत्येक स्थापित कवि के द्वारा हुआ...।’’ क्षणिका की जड़ें तलाशने के शोध-प्रयास में, सिंहावलोकन करते हुए हमारी दृष्टि अंग्रेज़ी के ‘इमेजिज़्म मूवमेण्ट’ पर भी जाकर ठहरती है। बीसवीं सदी के प्रथम दशक के उत्तरार्द्ध में बिम्बवादी आन्दोलन के प्रणेता टी. ई. ह्यूम की पुस्तक 'Notes on Language and Style' ने ‘इमेजिज़्म’ (बिम्बवाद) की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की, जिससे प्रभावित होकर पाश्चात्य कवियों ने बिम्ब-प्रधान काव्याभिव्यक्ति को महत्त्व देना प्रारम्भ कर दिया। आगे बढ़ने से पहले यहाँ ‘बिम्बवाद’ की मुख्य मान्यता/स्थापना से परिचित हो लेना उचित होगा; संक्षिप्त एवं सुस्पष्ट (दुरूहता-मुक्त) भावाभिव्यक्ति को बल देने वाला ‘बिम्बवाद’ काव्य में शब्दों के अपव्यय से बचने का प्रबल पक्षधर है। वह न्यूनतम शब्दों में अधिकतम अभिव्यक्ति करना कवि का अभीष्ट मानता है। इसके लिए कवि को ‘भर्ती’ के उन शब्दों/शब्द-समूहों से परहेज करना होता है, जो अर्थ-संप्रेषण में कोई विशेष योगदान नहीं देते, जो काव्य को संघनित अर्थ-छवि प्रदान नहीं करते अथवा भावाभिव्यक्ति को भौंथरा बनाते हैं या उसमें दुरूहता की स्थिति उत्पन्न करते हैं। ऊपर हम बात कर रहे थे- बिम्बवादी आन्दोलन के प्रसार की। धीरे-धीरे यूरोपीय कविता ‘बिम्बवाद’ की प्रभाव-परिधि में आ गयी। परिणामतः संघनित-संश्लिष्ट अभिव्यक्ति से युक्त भाव-गर्भित लघु कविताएँ अस्तित्व में आयीं। यूरोपीय कवियों ने इन कविताओं में तुकांत-योजना (राइम स्कीम) को मुक्तछंद (फ्री-वर्स) के विधान में वरीयता दी। द्वितीय दशक के मध्य में ‘बिम्बवाद’ के प्रबल पैरोकार एजरा पाउण्ड के संपादन में ‘Some Imagist Poets’ के प्रकाशन को लोकप्रियता मिली। इस यूरोपीय साहित्यिक हलचल का प्रभाव भारत पर भी पड़ा। भारत में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगौर (1861-1941) की अनेक लघु कविताएँ ‘क्षणिका’ की कसौटी पर खरी उतरती हैं। शायद इसी आधार पर अनेक समकालीन क्षणिकाकारों का मानना है कि हिन्दी में ‘क्षणिका’ विधा यूरोपीय फ्री-वर्स/ब्लैंकवर्स से बंगाली साहित्य में होते हुए आयी है। कुछेक क्षणिकाकार यह भी मानते हैं कि हिन्दी में ‘क्षणिका’ का आगमन अज्ञेय-प्रवर्तित ‘प्रयोगवाद’ के माध्यम से हुआ। ऐसे में, सम्प्रति मुझे लगता है कि ‘क्षणिका’ का वैदिक ऋचाओं से साम्य स्थापित करना अथवा संस्कृत साहित्य में उसकी जड़ें तलाशना, चन्द्रमा पर रामदुलारे को ढूँढ़ना है। यह तर्कसंगत नहीं जान पड़ता है। कतिपय क्षणिकाकारों द्वारा संस्कृत साहित्य की लघु रचनाओं के जो ‘सुविधाजनक व्याख्या-युक्त’ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं, वे ‘क्षणिका’ न होकर अनुष्टुप, आर्या, गायत्री, आदि छंद हैं। संस्कृत में सूक्तों-वेदमंत्रों के रूप में विभिन्न लघु छांदसिक रचनाएँ मिलती हैं। अतः संस्कृत साहित्य में ‘क्षणिका’ की वंश-परम्परा मिलने की संभावना नगण्य है। प्रसंगवश यहाँ संस्कृत का एक उदाहरण प्रस्तुत है। यदि निम्नांकित उदाहरण अथवा गायत्री मंत्र को कोई ‘क्षणिका’ कह बैठे, तो किसी भी साहित्य-मर्मज्ञ को आश्चर्य होना स्वाभाविक है- ‘‘ओम् अग्निमीदे पुरोहितम् / यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम्/होतारम् रत्न धातमम्।’’ 

क्षणिका बनाम लघु काव्य-विधाएँ :  
यहाँ भी उल्लेखनीय है कि हर लघु रचना को ‘क्षणिका’ नहीं कहा जा सकता है। माहिया, जनक, हाइकु, मुक्तक आदि लघुकाय विधाओं का अपना निर्धारित विधान है, अपना त्रिपदि/चतुष्पदिक शिल्प है। सर्वविदित है कि माहिया, जनक और हाइकु त्रिपदकि छंद हैं, जबकि आधुनिक प्रचलित मुक्तक के अन्तर्गत विभिन्न मात्रिक/वार्णिक छंदों में रचित चतुष्पदिक रचनाएँ आती हैं। ‘क्षणिका’ के आकार की लघुता के कारण कुछ नवोदित ‘हाइकु’ को भी क्षणिका समझ लेते हैं। हाइकु तो 5-7-5 के वर्णक्रम में 17 आक्षरिक त्रिपदकि छंद है, जबकि क्षणिका में ऐसे किसी वर्णक्रम अथवा पंक्तियों की संख्या का कोई बंधन नहीं है, उसका रिश्ता तो मुक्तछंद-परिवार से जुड़ा है। क्षणिका में पंक्तियों की संख्या के संदर्भ में विभिन्न सुपरिचित क्षणिकाकार यथोचित रूप से जागरूक जान पड़ते हैं। उनकी अधिकांश क्षणिकाएँ 3 से लेकर 8-10 पंक्तियों के बीच निबद्ध हैं। एक संभावनाशील युवा क्षणिकाकार आलोक तिवारी की रचना देखें, जो सिर्फ़ तीन पंक्तियों में निबद्ध है- ‘‘भ्रष्टाचार के खेल में/हम आ गये प्रथम/कॉमनवेल्थ गेम्स ख़तम!
    इसी क्रम में, प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम की निम्नांकित ‘क्षणिका’ न्यूनतम शब्दों में गहनतम अभिव्यक्ति के सुन्दर एवं सराहनीय सृजन की बानगी प्रस्तुत करती है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि अनुवादिका शान्ता द्वारा हिन्दी में अनुवादित इस क्षणिका पर संशय के आधार पर मैंने इसके मूल-स्रोत पंजाबी से मिलान किया। अनुवाद के आंशिक दोष-निवारण के बाद वह सारगर्भित क्षणिका प्रस्तुत है। यहाँ रूपक और संदेह की आलंकारिकता द्रष्टव्य है- ‘‘धरती, अति सुंदर किताब/चाँद सूरज की जिल्द वाली/पर ख़ुदाया! यह भूख, भय, नंगापन और ग़ुलामी/यह तेरी इबारत हैं?/या प्रूफ़ों की ग़लतियाँ...?’’
   गद्य-पद्य की अनेक विधाओं में सृजनरत वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. किशोर काबरा की ‘अनाथ’ शीर्षक एक क्षणिका हमारे चिंतन को कुरेदने के साथ ही, बड़ी सादग़ी से समय और समाज के समक्ष एक प्रश्न छोड़ जाती है- ‘‘अनाथाश्रम का एक लड़का/मेले में कहीं खो गया/अब तक वह अनाथ था/रजिस्टर के ख़ाने में,/अब वह अनाथ हो गया/सही माने में!’’
    पेशे से वरिष्ठ चिकित्सिका डॉ. सुनीता वर्मा ने भी क्षणिका-क्षेत्र में पदार्पण किया है। उनके सहज-सरल ‘क्षणिका-संसार’ में अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण पेश करने वाली अनेक क्षणिकाएँ उपलब्ध हैं, जो शीघ्र एक संग्रह के रूप में पाठकों के सामने आ रही हैं। चित्रात्मकता से युक्त ‘यादें’ शीर्षक के अन्तर्गत उनका एक उदाहरण देखें, जिसमें उन्होंने ‘सादृश्य विधान’ को साधकर अपनी ‘क्षणिका’ को सुन्दर रूपाभा प्रदान की है- ‘‘भावनाओं के सागर में/डूबती-उतराती हैं/यादों की कश्तियाँ.../जैसे/अक्वेरियम में/ऊपर-नीचे आती-जाती/रंगीन/प्यारी-प्यारी मछलियाँ!‘‘
    प्रसिद्ध हास्यकवि हुक्का बिजनौरी की निम्नांकित क्षणिका में शब्दापव्यय से आवश्यक दूरी बनाकर यादृच्छिक संप्रेषण को संभव बनाने का प्रयास दिखायी दे रहा है- ‘‘तू/मैं/तू-मैं/तू-तू, मैं-मैं!’’
    स्पष्टतः यहाँ द्वैत से उत्पन्न द्वंद्व का चित्र उकेरने में क्षणिकाकार को भरपूर सफलता मिली है। यहाँ विभेदमय ‘तू’ और ‘मैं’ है, इसीलिए ‘तू-तू, मैं-मैं’ है! यह ‘तू’ और ‘मैं’ ही सांसारिक लड़ाई-झगड़ों, वाद-विवाद, कलह के केन्द्र में है। क्षणिका-रूप में कुछ ऐसी भी रचनाएँ इतस्ततः प्रकाशित मिल जाती हैं, जो थोड़ा-सा विस्तार पा जाने पर ‘क्षणिकापन’ का अपेक्षाकृत अधिक अतिक्रिमण कर सकती थीं। प्रसिद्ध ब्लॉगर/क्षणिकाकार रश्मिप्रभा की एक रचना देखें, जिसे यहाँ उद्धृत करने का मेरा उद्देश्य पूर्वाेल्लिखित ‘क्षण’ के महत्त्व को रेखांकित करना है- ‘‘कुछ बातें क्षणों की होती हैं/पर बड़ी गहरी होती हैं/ज्यों किताब के बीच रखे सूखे फूल/सूखते नहीं/ये क्षण भी सदियों तक साँसें लेते हैं/एक-एक क्षण कीमती होता हैं/क्षण में साज़ बजते हैं/क्षण में प्रश्न उठते हैं/क्षण में अर्थ/क्षण में अर्थहीन/क्षण में...बस एक क्षण में/आओ इन क्षणों को जी लें!’’
     उपर्युक्त विभिन्न उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि क्षणिका में संक्षिप्त-संश्लिष्ट-संघनित अभिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण होती है, जबकि अनावश्यक विस्तार उसके अपेक्षित प्रभाव पर ग्रहण लगा देता है। ऐसे में, नवोदित क्षणिकाकार स्वविवेक से अपने लिए उचित विकल्प चुन सकते हैं। 

क्षणिका-लेखन :  विषय एवं नामकरण 
क्षणिका में वर्ण्य-विषय को लेकर कोई विशेष बंधन नही है। प्रायः देश, समाज, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म, प्रकृति, शिक्षा, साहित्य, कला, श्रृंगार, आदि अनेक विषयों पर क्षणिकाएँ रची गयी हैं। कुछ रचनाकार तो चटपटे कथनों, चुटकुलों, हँसी-ठिठोली से भरी रचनाओं एवं सीधी-सपाट अभिव्यक्तियों को भी क्षणिका-रूप में खपाने का प्रयास करते दिख जाते हैं। जब उन्हें लगता है कि छंदयुक्त और छंदमुक्त के बीच किसी अज्ञात अक्षांश और देशान्तर पर लटकी उनकी कोई रचना किसी विधा-विशेष में नहीं खप पा रही है, तब वे उसके शीर्ष पर ‘क्षणिका’ शब्द चिपकाने का सहज एवं सरल मार्ग निकाल लेते हैं। ‘सहज-योग’ की यह परम्परा ‘क्षणिका’ के लिए सर्वथा असात्म्य है। यहाँ यह बिन्दु भी विशेष उल्लेखनीय है कि इन दिनों मुक्तछंद की लघु आकारीय रचनाओं के लिए अनेक नाम, जैसे- हँसिका, व्यंग्यिका, दंशिका, सूक्ष्मिका, सीपिका, आदि चलन में दिख रहे हैं। हिन्दी साहित्य में शायद ही किसी विधा के इतने नाम होंगे। एकाधिक सटीक पर्याय को अपवाद-रूप में छोड़कर कहा जाए, तो अनेक नामों के चलन की आखि़र आवश्यकता क्या है? नामकरण के इस मुद्दे पर क्षणिकाकारों के मध्य परस्पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। इस पर विद्वानों के बीच मत-भिन्नता हो सकती है, तथापि इस दिशा में विचार-विमर्श अवश्य किया जाना चाहिए। कई बार किसी रचना-विशेष में भावार्थगत अल्पान्तर को आधार बनाकर एक नया नामकरण लेखकों की अति महत्त्वाकांक्षाओं के कारण ‘भी’ देखने को मिलता है। मुझे लगता है कि किसी विधा-विशेष के अनेक नामों के साथ छोटे-छोटे साहित्यिक खण्ड-उपखण्ड बना देने से वह विधा कमोवेश कमज़ोर होने लगती है। ऐसे समय में, जब ‘क्षणिका’ एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्वयं को स्थापित करने की दिशा में सुदृढ़ आधार बना रही है, तब इसके अन्तर्गत अनेक लघु खण्ड-उपखण्ड निर्मित कर देना हितकर नहीं जान पड़ता है। प्रचलित नामों की सार्थकता पर विचार करने पर हम पाते है कि ‘हँसिका’ पाठकों/श्रोताओं को मुख्यतः हँसाने-गुदगुदाने का काम करती है। यहाँ एक सहज प्रश्न उभर आता है कि हँसाने का कार्य तो चुटकुला भी करता है, तब भाव एवं प्रभाव (वस्तुतः ‘परिणाम’) की ज़मीन पर दोनों में कितना अन्तर रह जाता है? विदित हो कि ‘हँसिका’ के जन्म का श्रेय डॉ. सरोजनी प्रीतम को दिया जाता है। उनकी एक ‘हँसिका’ देखें, जिसमें ‘लेट’ शब्द के श्लिष्ट प्रयोग के माध्यम से ‘हास्य’ उत्पन्न करने की कोशिश की गयी है- ‘‘क्रुद्ध बॉस से/बोली घिघियाकर/माफ कर दीजिये सर,/सुबह लेट आई थी/कम्पन्सेट कर जाऊँगी,/बुरा न मानें अगर/शाम को लेट जाऊँगी।’’
    डॉ. सरोजनी प्रीतम की उपर्युक्त ‘हँसिका’ उन्हें इस आधार पर बधाई की सुपात्र बनाती है कि उन्होंने इसे ‘हँसिका’ कहकर ‘क्षणिका’ शब्द को बदनाम होने से बचा लिया! उनकी हँसिकाओं में ‘हास्य’ का यह ‘नॉन-वेज’ तड़का शाकाहारियों को भले रास न आये, लेकिन सच यह है कि इस तड़के की गंध ने उनके अनुवाद का मार्ग खोल दिया। वे नेपाली, गुजराती, पंजाबी एवं सिंधी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में पहुँच गयीं। उनकी एक अन्य रचना देखें, जो वास्तव में ‘क्षणिका-विधा’ का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस संदेश-प्रधान ‘क्षणिका’ में उनके चिंतन का धवल पक्ष उभरकर सामने आया है- ‘‘युवकों को डिस्को करते देखकर/संस्कृत का अध्यापक ऊब गया।/बोला-/सूरज को ही देखो/पश्चिम में ढला तो डूब गया!’’
     अब एक नज़र ‘व्यंग्यिका’ पर! इसका नाम स्पष्ट संकेत दे रहा है कि इसमें कोई-न-कोई ‘व्यंग्य’ सन्निविष्ट होता है। तो क्या कविवर अज्ञेय की ‘साँप’ शीर्षक क्षणिका में ‘व्यंग्य’ नहीं है? क्या कविवर मिश्रीलाल जायसवाल की निम्नांकित क्षणिका में ‘व्यंग्य’ की धार अपना कमाल नहीं दिखा रही है? विचार करें- ‘‘उन्होंने/अपने भाषण में/नैतिकता के सिद्धान्त गिनाये,/जैसे कोई अन्धा/आँखों देखा हाल सुनाये!’’
     क्षणिकाकार मिश्रीलाल जायसवाल ने अपने एक संग्रह के नाम में ‘सूक्ष्मिकाएँ’ शब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने शायद यह नाम इसलिए चुना होगा कि ‘सूक्ष्मिका’ शब्द ‘आकारगत लघुता’ का द्योतन करने के अलावा कोई इतर ‘अर्थाभा’ अथवा रंगत प्रदान नहीं करता। कोई विधागत विशिष्ट खण्ड अथवा उपखण्ड नहीं गढ़ता। संभव है कि मिश्रीलाल जायसवाल से पूर्व भी किसी रचनाकार ने ‘सूक्ष्मिका’ शब्द का प्रयोग किया हो। इसी प्रकार एक नाम है ‘सीपिका’ अर्थात वह सूक्ष्म ‘सीप/सीपी’ जिसमें भावों-विचारों का कोई मोती छिपा हो। मुझे यह स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं है कि ‘सीपिका’ शब्द अत्यन्त अर्थ-गर्भित है। इसके उच्चारण से सृजन का सुन्दर चित्र उभर आता है...सृजन के किसी स्वाति नक्षत्रीय ‘क्षण’ में चिंतन के जल-बिन्दु का ‘सीपी’ में समा जाना और मोती बनकर मनुष्य का आभूषण बनना...गौरव की बात है! उपर्युक्त नामों के क्रम में ‘दंशिका’ पर विचार करते ही, एक नकारात्मक अर्थ-बोध उभर आता है। यह नाम भ्रम उत्पन्न करता है। दंशिका अर्थात ‘दंश’ मारने वाली, डसने वाली! यहाँ विचारणीय पहलू यह है कि क्या किसी सृजन का उद्देश्य ‘दंश मारना’ अथवा ‘डसना’ हो सकता है? नामकरण के उक्त संदर्भ में, निष्कर्षतः मेरा मानना है कि ‘सूक्ष्मिका’ तथा ‘सीपिका’ शब्द इस विधा के लिए प्रयुक्त पर्यायों के रूप में स्वीकार किये जाने में कोई हानि नहीं है क्योंकि ये ‘क्षणिका’ का कोई अलग एवं नया खण्ड-उपखण्ड नहीं बनाते, बल्कि ‘क्षणिका’ को परिभाषित करने के लिए उपयोगी अर्थ-संकेत प्रदान करते हैं। और हाँ, किसी शब्द-ज्ञानी क्षणिकाकार ने अति उत्साह में ‘मुक्तिकाएँ’ नाम भी जारी करने का प्रयास किया था, जो प्रचलित नहीं हो सका, बल्कि स्वयं अल्पवय में ही ‘मुक्ति’ प्राप्घ्त कर गया।
युवा क्षणिकाकार :
क्षणिका-क्षेत्र में नयी पीढ़ी के उदीयमान क्षणिकाकारों का सृजन-कर्म उत्साहवर्द्धन का सुपात्र है। उनकी अभिव्यक्ति-मुद्राएँ ‘क्षणिका’ के उज्जवल भविष्य के लिए आश्वस्ति-प्रदायक हैं, वे सहज ही हमारा ध्यान खींच लेती हैं। कुछ उदाहरण देखें- 
     01. ‘‘आधुनिक संस्कृति/नये संस्कार बोती है।/बेटा कहता है-/‘पापा.../बियर, शराब नहीं होती है!’’ -रवीन्द्र ‘रवि’
    02.  ‘‘कोमल गात/छूकर वे/भूल गये/जात-पात।’’ -डॉ. शैलेश गुप्त ‘वीर’
     03. ‘‘कभी/माँ-बाप डरते थे/बेटी की लम्बाई से।/अब/डरते हैं/डायन महँगाई से।’’ -संदीप सृजन
काव्य-मंचों पर क्षणिकाएँ:  जिन रचनाकारों ने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के अतिरिक्त कवि-सम्मेलनों के माध्यम से भी क्षणिका अथवा क्षणिका-नुमा लघु काव्य रचनाओं को आम श्रोताओं तक पहुँचाने में न्यूनाधिक योगदान दिया है, उनमें मेरे संज्ञान में मिश्रीलाल जायसवाल, सुरेन्द्र शर्मा, घनश्याम अग्रवाल, जय कुमार रुसवा, चक्रधर शुक्ल, प्रकाश प्रलय, हुक्का बिजनौरी, राजा चौरसिया, प्रदीप चौबे, अशोक आनन, अशोक अंजुम, दिनेश रस्तोगी, डॉ. नरेन्द्र नाथ लाहा, प्रशांत उपाध्याय सहित कई दर्जन नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें से अधिकांश रचनाकार साहित्य की मुद्रित एवं वाचिक दोनों धाराओं से जुड़े हैं...अन्तर सिर्फ़ इतना कि कोई कम, तो कोई ज़्यादा। मंच पर अधिकांश क्षणिकाओं में सतही तथा द्विअर्थी ‘हास्य’ के अनपेक्षित तत्त्व का भी समावेश दिखायी देता है, जो क्षणिका की गरिमा को आहत करता है। सच तो यह है कि काव्य-मंचों पर ‘क्षणिका’ के नाम पर क्षणिका का अपभ्रंश-रूप अधिक प्रचलित है। संतोषप्रद बात यह है कि इनमें से कु्छेक कवियों ने ‘क्षणिकाएँ’ शीर्षक की जगह ‘हास्य-व्यंग्य कविताएँ’ लिखकर विशेष समझदारी का परिचय दिया है। यहाँ स्थानाभाव में सिर्फ़ कुछेक उदाहरण ही प्रस्तुत हैं; जिनमें रचनाकार मर्यादित अभिव्यक्ति के धरातल पर रहकर हमारे चिंतन को कुरेदने के साथ ही कोई-न-कोई प्रभावशाली प्रश्घ्न खड़ा करने में सफल हुए हैं। इनमें से कई रचनाएँ ‘क्षणिका-विधा’ की सुन्दर बानगी प्रस्तुत करती हैं-  
1. बेताल के इस सवाल पर/विक्रम से लेकर/अन्ना तक मौन हैं/कि जब सारा देश/भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ है/तब आखि़र/भ्रष्टाचार करता कौन है?’’ -घनश्याम अग्रवाल (कथाबिंब: अक्टूबर-दिस. 2011, पृ. 12) (नोट :  उपर्युक्त रचनाकार ने ‘आखि़र’ शब्द की जगह ‘स्साला’ का प्रयोग किया है, यह लेखक का अपना विवेक है। जिसे मैंने स्वविवेक से बदल लिया है।) 
2. ‘‘आधुनिक बच्चे/अति आधुनिक उड़ान भर रहे हैं/पहले माँ की ‘गोद’/गीली करते थे,/अब माँ की ‘आँखें’/गीली कर रहे हैं!‘‘ -प्रकाश ‘प्रलय’ (नई गुदगुदी, जनवरी-मार्च 2012, पृ. 22)। 
3. ‘‘कै-मरे, कै-मरे/मैंने पत्रकार से पूछा।/वह बोला-/दुर्घटना घटी है/जगह लाशों से पटी है/अभी तो केवल/फोटू खिंचकर आयी है/लाशों की गिनती नहीं हो पायी है!’’  -चक्रधर शुक्ल। 
4. ‘‘भारत के/सुसंस्कृत इतिहास में/जोड़ा गया/भ्रष्टाचार का ऐसा ड्रामा/जिसमें/न कोई फ़ुलस्टॉप/न कॉमा!’’     -जय कुमार ‘रुसवा’ (टुकड़े-टुकड़े सोच, पृ. 26)
5. ‘‘वे बोले-/आजकल कुएँ के पानी का स्तर/इतना गिर गया है मित्र,/जैसे-/किसी नेता का चरित्र!’’ -अशोक ‘आनन’ (हंगामा, संपा. जयकुमार रुसवा, पृ. 16)
6. ‘‘सरकारी बस थी/सरकती न थी/‘बस’ थी!’’   -प्रमोद चौबे
7. ‘‘घोटालों की परम्परा में/उन्होंने/इतना खाया,/कि फिर/बचने के लिए/कोई ‘चारा’ नज़र नहीं आया!’’           -अशोक ‘अंजुम’ (क्या करें कण्टोल नहीं होता, पृ. 22)
     सर्वविदित है कि मंच पर व्यावसायिक मानसिकता ने काव्य को एक बड़ी सीमा तक विकृत किया है। अधिकांश हास्य-व्यंग्य कवियों ने सिर्फ़ अपने नाम ही नहीं बिगाड़े, श्रोताओं का स्वाद भी बिगाड़ा है। मंच के सुपरिचित हास्यकवि प्रेम किशोर ‘पटाखा’ (अलीगढ़) की निम्नांकित क्षणिका-नुमा हास्य-रचना देखें, जिसे उन्होंने ‘पत्नी’ शीर्षक दिया है। इस रचना में ‘धर्मपत्नी’... अर्थात जीवन-संगिनी, सह-धर्मिणी जिसे भारतीय संस्कृति में अन्नपूर्णा, गृहदेवी, आदि कहकर गरिमा प्रदान की गयी हैं, को कितने ‘पतित’ रूप में प्रक्षेपित किया गया है। हास्योद्देश्य से ही सही, यहाँ ‘पत्नी’ एक ‘घरेलू जेबकतरा महिला’ के रूप में सामने आयी है। ऐसा ‘हास्य’ आखि़र किस काम का, जो ‘नारी’ की सुन्दर छवि को धूमिल करता हो...उसके त्याग-समर्पण-प्रेमयुक्त पारिवारिक अवदान को अनदेखा करता हो? यदि किसी रचनाकार का ऐसा कोई नकारात्मक ‘निजी’ अनुभव हो, तो उसे स्वयं तक सीमित रखना ही श्रेयस्कर होता है। कहना न होगा कि कई बार सस्ती तुकबन्दी के प्रयास में भी अनेक सतही रचनाएँ अस्तित्व में आ जाती हैं। यहाँ ‘बनी-ठनी/तनी/मनी/पत्नी’ के साथ भी कमोवेश ऐसा ही  दुर्योग बना दिखायी दे रहा है- ‘‘बनी-ठनी/रहती है/पति पर तनी/पति की पॉकिट की उड़ा दे/सारी की सारी मनी/कहते हैं पत्नी।’’
     विचार करें कि क्या पत्नी का उपर्युक्त चरित्र-चित्रण सर्वग्राह्य हो सकता है? क्या यहाँ हास्य, स्वयं हास्यास्पद नहीं हो गया है? मुझे आश्चर्य है कि यह क्षणिकानुमा रचना प्रेमकिशोर पटाखा जैसे वरिष्ठ कवि की लेखनी से निकली है। वह लेखनी जिसे तमाम नवोदितों के सम्मुख श्रेष्ठ सृजन के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए।
     इसी क्रम में, कविवर अशोक ‘अंजुम’ के एक संग्रह में ‘पाक की नापाक व्यंग्यिकाएँ’ जैसे विचित्र शीर्षक-खण्ड के अन्तर्गत एक रचना शामिल है- ‘अक़्ल का दुश्मन’, जिसमें उनका व्यंग्य-स्वर विधागत मानदण्ड का ‘अतिवादी अतिक्रमण’ करता हुआ अवांछित रूप से ‘आक्रोश’ के धरातल पर जा पहुँचा है। इस हद तक कि कविवर अपनी इस सीधी-सपाट एवं अग्राह्य अभिव्यक्ति में सीधे-सीधे पाकिस्तान को संबोधित करते हुए उसे गरियाने पर उतर आये हैं। देखें- ‘‘पाकिस्तान!/हम तो प्रारम्भ से ही जानते हैं-/तेरा क़मीनापन,/पर सुन/हम कीचड़ में/पत्थर नहीं फेंकते/अक़्ल के दुश्मन!’’
     यहाँ एक बड़ा प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी गाली-गलौज से युक्त अशोभन अभिव्यक्ति किसी साहित्यकार के लिए उचित है...? निःसंदेह यहाँ ‘क़मीनापन’ का अविवेकपूर्ण प्रयोग अभिव्यक्ति के लड़कपन (अपरिपक्वता) का संकेत दे रहा है। मेरी विनम्र राय में अभिव्यक्ति के स्तर पर व्यंग्य की उत्कृष्घ्टता के लिए ‘आक्रोशहीनता’ अति आवश्यक है। ग़ौरतलब है कि व्यंग्य की फ़सल मुख्यतः ‘आदर्श’ और ‘यथार्थ’ अथवा ‘कथनी’ और ‘करनी’ के बीच चौड़ी खाई में स्थित ‘विरोध’ की मूलभूत ज़मीन पर उगती है। एक व्यंग्यकार उस फ़सल के क़ाश्तकार के रूप में सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों-विषमताओं, अत्याचार-दुराचार-भ्रष्घ्टाचार, शोषण-अन्याय-उत्पीड़न की कुरूप पर्यावरणिक परिथितियों के बीच ‘यथास्थितिवाद’ का विरोधी होता है। उसका स्वर ‘परिवर्तनकामी विद्रोह का स्वर’ होता है! समरूपता स्थापित करते हुए कहें, तो ‘आक्रोश’ एक बीज है...और ‘व्यंग्य’ उसके अन्तस से प्रस्फुस्टित एक पौधा (वृक्ष); पौधे के अस्तित्व में आने से पूर्व ही बीज का विलोपन हो जाता है! व्यंग्यकार के लिए बेहतर स्थिति यही कि उसके अन्दर का ‘आक्रोश’ व्यंग्य-रचना के सृजन का ‘बीज’ बनकर ही रहे, न कि ‘पौधा’। ध्यातव्य है कि ‘आक्रोश’ व्यंग्य की अभिव्यक्ति का कारण है, ‘व्यवस्था-विरोध’ उसका मूल स्वर है, जबकि ‘जागरण’ एवं तज्जनित ‘व्यवस्था-परिवर्तन’ उसका लक्ष्य।
देश-विदेश के कुछ क्षणिकाकार:   
     हिन्दी के जिन कवियों ने ‘क्षणिका-विधा’ के अन्तर्गत अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करायी है, उनमें केदारनाथ अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, नरेश सक्सेना, डॉ. पंकज परिमल, बलराम अग्रवाल, चक्रधर शुक्ल, हरकीरत ‘हीर’, गोपीनाथ चर्चित, सूर्यकुमार पाण्डेय, दिनेश रस्तोगी, डॉ. रमा द्विवेदी, काशीपुरी कुन्दन, रामेश्वर कम्बोज हिमांशु, डॉ. नरेन्द्र नाथ लाहा, डॉ. सुरेश सपन, रामकृष्ण विकलेश, अशोक विश्नोई, राजीव रंजन प्रसाद, नारायण सिंह निर्दोष, शिवकुमार शिव, इमरोज़, डॉ. जेन्नी शबनम, शिशुपाल मधुकर, संजय शुक्ला, रवि शर्मा मधुप, डॉ. स्वर्णकिरण, केशव शरण, सुधीर सागर, ज्योत्स्ना शर्मा एवं उर्दू में इब्राहीम अश्क आदि के नाम सम्प्रति मेरे संज्ञान में हैं। इसी प्रकार विदेशी भूमि पर रहकर जो हिन्दी-सेवक क्षणिका-विधा में समय-समय पर अपना यथोचित योगदान देते रहे हैं, उनमें- डॉ. सुधा ओम ढींगरा कनाडा), पूर्णिमा बर्मन (शारजाँह), रचना श्रीवास्तव (अमेरिका), मंजू मिश्रा (अमेरिका) आदि प्रमुख हैं। डॉ. सुधा ओम ढींगरा की ‘मुक्ति’ शीर्षकान्तर्गत एक क्षणिका में चित्रात्मक अभिव्यक्ति देखें- ‘‘बर्फ से/दबी-घुटी घास/की पीड़ा/सूरज/सह नहीं पाया,/किरणों की/फौज भेजकर/मुक्ति दिला दी।’’

कुछ क्षणिका-संग्रह : 
 क्षणिका-संसार में बहुत से रचनाकार ऐसे हैं, जिन्होंने सहस्राधिक क्षणिकाएँ लिखीं हैं, किंतु किन्हीं कारणों से उनके निजी संग्रह प्रकाशित नहीं हो सके। इनमें से एक नाम चक्रधर शुक्ल (कानपुर) का भी है। वहीं कुछेक क्षणिकाकार ऐसे भी हैं, जिनके संग्रहों में ‘क्षणिकाओं’ के अलावा अन्य विधाओं एवं विशुद्ध हास्य-व्यंग्य की लघु कविताओं का भी समावेश है। इसके अंतर्गत हास्यकवि प्रकाश ‘प्रलय’ (कटनी) का संग्रह ‘सैंया भये कोतवाल’ और यशस्वी कवि एवं संपादक अशोक अंजुम (अलीगढ़) का संग्रह ‘क्या करें, कंट्रोल नहीं होता’ विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त अब तक मेरे संज्ञान में जो क्षणिका-संग्रह आए हैं, उनका नामोल्लेख यहाँ प्रस्तुत है- 
1. ‘आकाश में धरती नहीं है’ (1991) - डॉ उमेश महादोषी 
2. ‘सीपियाँ और सीपियाँ’ (लघु संकलन,1987) -(संपा.-द्वय डॉ. उमेश महादोषी/डॉ. सुरेश सपन)
3. ‘टुकड़े-टुकड़े सोच’ (1999)- जय कुमार ‘रुसवा’
4.‘प्रतिबन्ध’ (2011)-.माताप्रसाद शुक्ल
5. ‘उगते सूरज का अहसास’(1996) -डॉ. मिथिलेश दीक्षित
6. ‘धूप की तरह’ (2010) -डॉ. मिथिलेश दीक्षित
7. उगती दूब: उभरते अक्षर (2010) -डॉ. मिथिलेश दीक्षित
8. सिन्धु सीपी में (2011)- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
9. ‘जले सुधि के दीप’ (1996)- (संपा. डॉ. मिथिलेश दीक्षित) 
10. मिश्रीलाल जायसवाल की सूक्ष्मिकाएँ’(1999)- मिश्रीलाल जायसवाल
11. ‘शब्द प्राणायाम’ - रमेशकुमार भद्रावले 
12.‘एक पल’ (2012) - रश्मि प्रभा 
13.‘उसके लिए’ (2012)- डॉ सुरेन्द्र वर्मा

हँसिका-संग्रह :  
    मेरी निजी राय में, ‘क्षणिका-वर्ग’ से हँसिका-संग्रहों का पृथक्करण अति आवश्यक है। अस्तु! इनका नामोल्लेख उक्त सूची से इतर प्रस्तुत करने में मुझे लेशमात्र भी संकोच नहीं है- 1. ‘सैनिकों के लिए हँसिकाएँ - डॉ. सरोजनी प्रीतम/2. ‘हँसिकाएँ ही हँसिकाएँ - डॉ. सरोजनी प्रीतम (कुल 3 संग्रह)

पत्र-पत्रिकाओं में क्षणिकाएँ :  
हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में भी क्षणिका को कमोवेश स्थान मिलता रहा है, जिसमें ‘कादम्बिनी’ का नाम विशेष रूप से रेखांकित किये जाने योग्य है। हरकीरत हीर के अतिथि संपादन में प्रकाशित ‘सरस्वती सुमन’ (देहरादून) का विशेषांक (जुलाई-सित.2012) तो क्षणिका-विधा का अब तक का सबसे बड़ा अनुष्ठान है, जिसमें देश-विदेश के क्षणिकाकारों की वैविध्यपूर्ण मौलिक व अनुवादित क्षणिकाओं तथा उपयोगी आलेखों का समावेश हैं। इससे पूर्व ‘आहट’ (क्षणिका-केन्द्रित लघु पत्रिका) का प्रवेशांक अप्रैल,1989 में डॉ उमेश महादोषी एवं बलराम अग्रवाल के संयुक्त प्रयासों से प्रकाशित हुआ। उसके बाद किन्हीं कारणों से इस पत्रिका का कोई भी अंक प्रकाशित नहीं हो सका। इसी बीच ‘अंकुर आवाज़’ (आगरा) का ‘क्षणिका विशेषांक’ भी डॉ. उमेश महादोषी के अतिथि संपादन में प्रकाशित हुआ। विश्वम्भर मोदी के संपादन में प्रकाशित हास्य-व्यंग्य त्रैमा. ‘नई गुदगुदी’ के लगभग हर अंक में कुछ क्षणिकाएँ एवं क्षणिका-नुमा हास्य-व्यंग्य रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। डॉ. स्वर्ण किरण के संपादन में प्रकाशित एक लघु पत्रिका ‘नालन्दा दर्पण’ में भी क्षणिकाओं को स्थान मिलता रहा है। इसके अतिरिक्त ‘वर्तमान साहित्य’, ‘जनगाथा’, ‘अभिनव प्रत्यक्ष’, ‘कलमदंश’, ‘व्यंग्य-तरंग’, दै. ‘विश्वमानव’, ‘अभिनव प्रयास’, ‘शब्द-प्रवाह’, ‘प्रेरणा’ सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर क्षणिकाएँ पढ़ने को मिलती रही हैं। हाँ, कुछ पत्र-पत्रिकाओं में यह विधा ‘फ़िलर’ के रूप में लटकी दिखायी देती है। यह दृश्य किसी भी समर्पित क्षणिकाकार के लिए पीड़ादायक है।

‘क्षणिका’ के जन्मदाता :  
 सन् 1981, 87 तथा 2001 में मिश्रीलाल जायसवाल के तीन अन्य संग्रहों (पूर्वोल्लिखित के अलावा) का भी नामोल्लेख मिलता है। सन् 1919 में जन्मे श्री मिश्रीलाल जायसवाल जी की लौकिक अनुपस्थिति में, मैंने उनके सुपुत्र श्री शरद जायसवाल से दूरभाषिक संपर्क साधकर विवरण माँगने की कोशिश की थी, किन्तु उनके ‘अखण्ड असहयोग’ पर साश्चर्य मौन रह जाना ही मेरे लिए एकमेव विकल्प था, तथापि मेरे एक मित्र ने अपने ख़र्चे पर कुछ पर्चे भेज दिये, जिनमें मिश्रीलाल जायसवाल जी से संबंधित अनेक सुपरिचित साहित्यकारों के विचार दर्ज हैं। उनके संदर्भ में प्रो. (डॉ.) दिनेशदत्त चतुर्वेदी लिखते हैं- ‘वयोवृद्ध व्यंग्यकार तथा क्षणिकाओं के जनक श्री मिश्रीलाल जायसवाल की रचनाएँ मन-मस्तिष्क पर सीधी चोटकर विचार-तंत्री को झंकृत करने में समर्थ हैं।’ प्रो. चतुर्वेदी की इस ‘निजी मान्यता’ से सहमति जताना काफी जोखिम-भरा कार्य है। बेहतर होता कि प्रो. चतुर्वेदी जी उचित प्रमाणसम्मत बात कहते। इसमें कोई दो राय नहीं कि मिश्रीलालजी ने ‘क्षणिका’ के प्रति मिशनरी उत्साह से समर्पित होकर सृजन और साहित्य-संवर्द्धन किया, जीवन-पर्यन्त इसके प्रचार-प्रसार में एक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनका अवदान मुक्तकंठ से सराहनीय है। लेकिन उन्हें ‘क्षणिका का जनक’ कहा जाना उचित नहीं है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध क्षणिकाकार डॉ. उमेश महादोषी भी अपनी विनम्र असहमति प्रकट करते हैं- ‘वे मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि थे, मैं क्षणिका-लेखन में उनके योगदान को आदर के साथ स्वीकार करता हूँ, लेकिन क्षणिका के जनक या मूल प्रणेता के रूप में उनका नाम लेना उचित नहीं होगा।’  यहां विचारणीय बिन्दु यह है कि जब गुरुदेव टैगोर (1861-1941), अज्ञेय (1911-1987), आदि विभिन्न पूर्ववर्ती एवं उनके समकालीन कवियों के सृजन-लोक में ‘क्षणिका’ के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं, तब मिश्रीलाल जायसवाल (1919- 2005) जैसे उत्तरवर्ती कवि को इस विधा का जनक किस आधार पर माना जा सकता है? 
     क्षणिका के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण आरम्भिक योगदान देने वाले कवियों में दिनकर सोनवलकर का नाम भी कुछ क्षणिकाकार बड़े आदर के साथ लेते हैं। इसके अतिरिक्त यदि ‘आहट’ (अप्रैल, 1989) में छपे नाथूराम त्यागी जी द्वारा प्रस्तुत एक लघु विवरण को सही मानें, तो लघुकाय रचना के लिए ‘क्षणिका’ शब्द का प्रथम औपचारिक प्रयोग सन् 1932 में प्रजामंडल नागपुर की बैठक में छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा सुनाई गयी तीन पंक्तियों की एक ‘छोटी-सी कविता’ के लिए किया गया था। श्री त्यागी जी के अनुसार इस शब्द का प्रयोग कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ‘राम’ (उपनाम) ने किया था। दरअसल कमलापति त्रिपाठी आदि अनेक गणमान्य नेताओं की उपस्थिति में उक्त बैठक के दौरान जैसे ही ‘‘महादेवी जी भाषण देने को उठीं, तो सूचना मिली कि सरकारी जीप में कुछ लोग आ रहे हैं। सभा बर्खास्त होने का इंतजाम होने लगा, किन्तु महादेवी जी ‘क्षणभर’ में तीन पंक्तियाँ रचकर अपनी बात कह गयीं। इस पर कांग्रेस के उक्त कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘महादेवी जी ने क्षणिकाएँ सुनायीं, चलते-चलते।’’ उपर्युक्त अनेक बिन्दुओं के आलोक में, यह तय है कि ‘क्षणिका’ बीसवीं शताब्दी की देन है। इसके वास्तविक जनक कौन हैं, इस संदर्भ में विस्तृत शोध की आवश्यकता है। तथ्यों-तर्कों-प्रमाणों के अभाव में की गयीं घोषणाएँ कोई महत्त्व नहीं रखतीं...!

क्षणिका में छंद-निर्वाह!  
उत्कृष्ट सृजन के प्रति समर्पित प्रसिद्ध साहित्यकार एवं संपादिका डॉ. मिथिलेश दीक्षित के क्षणिका-संसार में ‘फ़ाइलातुन’ के एकल लयखण्ड के अष्टावर्तन का एक सुन्दर उदाहरण नीचे प्रस्तुत है, जिसका रिश्ता तुकान्त-योजनारहित लयात्मकता के साथ मुक्तछंद परिवार से जुड़ा दिख रहा है। ऐसी अन्तर्निहित लयात्मकता महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की मुक्तछंद रचनाओं में दिखती है- ‘‘एक मूरत/जाने कब से/थी प्रतिष्ठित/इस हृदय में,/आज वह/नाना सुरों में/बोलने भी लग गयी है।’’
     उपर्युक्त से इतर, डॉ. मिथिलेश दीक्षित के क्षणिका-संग्रह में कुछ रचनाओं में जाने-अनजाने लयात्मकता का ऐसा निर्वाह भी हो गया है जिसके चलते वे छंदोबद्ध रचनाएँ बन गयी हैं। यहाँ ‘फ़ेलुन’ (ऽऽ) के रुक्न का अष्टावर्तन देखें, जिसमें ‘कल’ और ‘पल’ जैसे तुकान्तकों के साथ ‘को’ रूप में पदान्त-शब्द की प्रयुक्ति है- ‘‘फूल न जाने/भावी कल को,/फिर भी खिल जाता/कुछ पल को!’’
     यदि इन चार पंक्तियों को सीधा करके लिख दिया जाय, तो द्विपदिक छंदोबद्ध रचना बन जायेगी, जिसमें दोनों पदों में ‘फ़ेलुन’ की चार-चार (कुल 8) आवृत्तियाँ हैं, यानी 16 मात्रिक रचना। उर्दू-फ़ारसी के अरूज़ में इसे बह्रे-मुतक़ारिब (मात्रा-गणना के अल्पान्तर में ‘बह्रे-मुतदारिक’ भी) कहा गया है। यह हिन्दी छंदशास्त्र में ‘चौपाई’ के निकट है- ‘‘बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा’’। पाठकगण इसे स्वयं गाकर देखें- ‘‘फूल न जाने भावी कल को।/फिर भी खिल जाता कुछ पल को!’’
     यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि कई बार किसी विधा-विशेष से जुड़ी रचना के सृजन-प्रयास में कवि रचता कुछ है, रच कुछ और जाता है...कभी-कभी। यह एकदम अनायास हो जाता है, ऐसा शायद सभी के साथ होता होगा, कभी-न-कभी। फिर भले ही कोई यह वैचारिक बिन्दु उभारते हुए कहे कि- ‘साहब, यह तो अमुख विधा की रचना न होकर, फलानी विधा की रचना है...’ जैसा कि डॉ मिथिलेश दीक्षित की उपर्युक्त ‘क्षणिका’ (वस्तुतः ‘चौपाई’) के संदर्भ में हुआ है।

इण्टरनेट पर क्षणिकाएँ :  
अन्तर्जाल हर रोज़ अनगिनत ज्ञात-अज्ञात-अल्पज्ञात-सुज्ञात क्षणिकाकारों की उत्सवधर्मिता का साक्षी बनता है। कविताकोश, अनुभूति, साहित्यशिल्पी, लेखनी, आदि पर अनेक क्षणिकाकारों के सृजन की झलक पायी जा सकती है। ब्लॉग-जगत का अवलोकन करने पर प्रायः अत्यन्त सारगर्भित क्षणिकाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं। क्षणिका के समर्पित रचनाकार एवं संपादक डॉ. उमेश महादोषी की क्षणिकाओं का निजी ब्लॉग- ‘ज़िन्दगी के आकाश में’ की सार्थक उपस्थिति दर्ज है। वे अपने ‘अविराम’ नामक ब्लॉग पर देश-देशान्तर से खोज-खोजकर सृजनधर्मियों को न केवल नेट पर, बल्कि समय-समय पर प्रकाशित विभिन्न संकलनों में भी उन्हें शामिल करते हैं। इसी क्रम में ‘काव्यांचल डॉट कॉम’ के योगदान की भी मुक्तकण्ठ से सराहना करनी होगी। इन्हीं के बीच प्रसिद्ध ब्लॉगर एवं क्षणिकाकार हरकीरत ‘हीर’ का ब्लॉग भी ‘क्षणिका’ के साथ अन्य गद्य-पद्य विधाओं के लिए उल्लेखनीय है। दर्द की इस दौलतमन्द कवयित्री के सृजन-संसार में गहन अनुभूतियों से युक्त संघनित अभिव्यक्ति वाली अनेक क्षणिकाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं। उनकी एक क्षणिका देखें, जिसके अन्त में ‘थ्री डॉट्स’ की उपस्थिति भी निरर्थक अथवा अकारण नहीं है। यह क्षणिका अपनी समाप्घ्ति के बाद भी समाप्घ्त नहीं होती, वह बहुत कुछ ‘अनकहा’ छोड़ जाती है- ‘‘आँखों से बहकर/बर्फ हो गए थे जो अश्क/मैंने उसी से अपना घर बनाया है,/ऐ धूप!/तुम मत आना इधर...’’।
    इंटरनेट पर साहित्य-संवर्द्धन एवं संरक्षण के शिवोद्देश्य से समर्पित साहित्यकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने भी ‘हाइकु’ के साथ-साथ क्षणिकाओं पर भी छिटपुट कार्य किया है। उन्होंने वर्ष 2011 में ‘अविराम’ के ‘हाइकु-क्षणिका-जनक’ केन्द्रित एक समन्वित विशेषांक का अतिथि संपादन भी किया है। इंटरनेट पर डॉ. सरोजनी प्रीतम की निजी साइट भी उपलब्ध है, जहाँ वे ‘हँसिकाओं’ के माध्यम से पाठकों का मनोरंजन करती हैं। सुपरिचित कवयित्री रश्मिप्रभा का ‘क्षणिकाएँ’ नामक ब्लॉग हमें चिंतन के साँचों में ढली श्रेष्ठ क्षणिकाओं के अवगाहन का अवसर उपलब्ध कराता है, लेकिन उनकी कुछ क्षणिकाएँ ‘संक्षिप्तता-संश्लिष्टता’ के मानदण्ड का अतिक्रमण भी करती मिल जाती हैं। क्षणिकाकार रमेश भद्रावले का प्रशंसनीय क्षणिका-संग्रह पाठकों से सिर्फ़ एक फ़िंगर-स्टेप दूर है- ‘शब्दयोग’ नामक ब्लॉग पर। उनकी ‘उल्कापात’ शीर्षक के अन्तर्गत एक चित्रात्मक अभिव्यक्ति देखें, जिसमें सटीक शीर्षक-चयन क्षणिका को सार्थकता प्रदान कर रहा है- ‘‘धूम्रपान,/ कभी-कभी/चाँद तारे भी करते हैं,/ऐश-ट्रे/समझकर गुल/धरती पर/गिरा देते हैं!’’
     अर्न्तजाल पर क्षणिका-विधा से जुड़े ज्ञानवर्धक आलेखों अथवा क्षणिका-संग्रहों की समीक्षाओं आदि का सर्वथा अभाव है, तब जबकि वहाँ देश-विदेश के अनगिनत क्षणिकाकार सक्रिय हैं। वास्तव में यह चौंकाने वाली बात है! आशा करता हूँ कि नेट पर सक्रिय ‘सक्षम क्षणिकाकार’ इस दिशा में भी पहल करेंगे, क्योंकि सिर्फ क्षणिका-सृजन को ही पर्याप्त मान लेना उचित नहीं है। इस विधा के समुचित विकास एवं नवोदितों के मार्गदर्शन के लिए वैचारिक आलेखों एवं समालोचनात्मक सामग्री की महती आवश्यकता है। कहना न होगा कि शिल्प पक्ष-पर यथोचित प्रकाश डालने वाली सामग्री किसी विधा-विशेष के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। फिलहाल निम्नांकित लिंक्स (कड़ियों) पर यथारुचि अनेक क्षाणिकाकारों के विभिन्न भाव-लोकों में झाँका जा सकता है- 
      उधर फ़ेसबुक तो कई बार ‘क्षणिका’ का बाढ़ग्रस्त इलाक़ा-सा बना दिखता है; यहाँ गम्भीर-अगम्भीर क़िस्म के इतने क्षणिकाकार मिल जाते हैं कि गिनना मुश्किल। कभी-कभी लगता है कि ‘फ़ेसबुक’ तो ‘फेंक-बुक’ बन गया है, जहाँ सृजन के नाम पर कोई भी कुछ भी ‘फेंककर’ चला जाता है, इण्टरनेट सागर में तैरने/तैराने के लिए। ‘चट मँगनी, पट ब्याह’ की तर्ज़ पर इधर लिखा, और उधर पोस्ट। कई बार तो कुछ अनभ्यस्त भाई लोग भी किसी ‘आशुकवि’ की तरह ‘डायरेक्टली टाइप एण्ड पोस्ट ऑन फ़ेसबुक’ का विकल्प चुनते दिख जाते हैं...भाव-भाषा-शिल्प की सही समझ से कोसों दूर...बिना किसी पूर्व चिंतन-मनन के। बहरहाल फ़ेसबुक की इस बाढ़ में कुछ उपयोगी सामग्री के बीच तमाम ‘अवांछित खरपतवार’ भी बहकर चला आता है। इसमें से जो ‘काम’ का होता है, वह पाठकों के मनो-मस्तिष्क पर प्रभाव छोड़ जाता है, शेष सब कुछ ‘शाम’ तक गुमनामी के अँधेरे में खो हो जाता है।
      इस छोटे-से आलेख में क्षणिका-संसार से जुड़े अन्य अनेक बिन्दुओं, इण्टरनेट पर उपलब्ध विभिन्न साइट्स, ब्लॉग्स, वेब-मैगज़ीन्स, फ़ेसबुक समूह, आदि का उल्लेख कर पाना, अँजुरी में सरिता समेटने-जैसा प्रयास होगा। संभव है कि मेरे सीमित ज्ञान अथवा पहुँच के अभाव में कुछ अति महत्त्वपूर्ण ब्लॉग्ज़/साइट्स, आदि का उल्लेख छूट गया हो। ऐसे में, संबंधित जन परिवर्द्धन अथवा संशोधन के उद्देश्य से मुझे निजी तौर पर सूचित कर सकते हैं, जिसके लिए मेरी ओर से अग्रिम आभार। यही बात इस शोधालेख में शामिल क्षणिकाकारों के नाम और उनकी क्षणिकाओं के उद्धरणों पर भी लागू होती है। इसमें किसी भी नाम को दुर्भावनावश नहीं छोड़ा गया है। यदि मुझसे ऐसी भूल हुई हो, उसका कारण मेरा सीमित ज्ञान है। वस्तुतः शोध एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। कोई भी शोधालेख स्वयं में पूर्ण एवं अन्तिम नहीं होता है। यह लघु प्रयास भी इसका कोई अपवाद नहीं हैं।
(यह आलेख 'अविराम साहित्यिकी' व  ‘सरस्वती सुमन’ दोनों पत्रिकाओं के क्षणिका विशेषांकों  में  प्रकाशित हो चुका है।) 

  • अंग्रेज़ी विभाग, ए. बी. आई. कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र-231218(उ.प्र.) 


डॉ. पुरुषोत्तम दुबे



क्षणिका यानी हथेली पर हिमालय

   क्षणिका, कुछ अर्थवान् शब्दों का विराट सम्मोहन है। स्वाति की एक बूँद कदली पर गिरकर कपूर बनती है जैसे, समुद्र में गिरकर मोती बनती है जैसे, वैसे ही किसी एक क्षण की उपलब्धता से हाथ आया रचनात्मक विचार ‘क्षणिका’ को जन्म देता है। मन भर फूलों को पीसकर इत्र की एक बूँद हासिल होती है जैसे, वैसे ही एक शब्द गुणात्मक विचारों के मंथन से पैदा होता है और समान वजन के शब्दों को संग्रहीत कर अपनी जमावट से ‘क्षणिका’ का ‘कैनवस’ रचता है।
         शास्त्रीय मीमांसक काव्य को ही शास्त्र कहते हैं। अर्थात् काव्य ही साहित्य का पर्याय है। क्षणिका, अपनी वंशानुगतता की दृष्टि से काव्य रूप ही है। स्वरूप की दृष्टि से कविता और क्षणिका में मेक्रो एवं माइक्रो का अन्तर है। कथ्य जितना विशालकाय होगा, कविता उतनी लम्बी जायेगी। लम्बी कविता में प्रभाव को बनाये रखना कवि की सहजानुभूति के साथ कवि की संकल्पना पर भी निर्भर करता है। बरअक्स इसके ‘क्षणिका’ विचार प्रधान होती है। विचारों के साथ तथ्यों का सन्निवेश ’क्षणिका’ की रचना-प्रक्रिया को बहाल करता है।
    ग़ौरतलब है ‘क्षणिका’ की उत्पत्ति साहित्य से जीवन के जुड़ाव का परिणाम है। साहित्य से जीवन का जुड़ना ही आधुनिक-बोध भी है। आधुनिक शब्दावलियों में कहें तो ‘क्षणिका’ लेखन पारम्परिक काव्य लेखन से छिटका हुआ एक ऐसा चुम्बकीय कण है, जो अपने स्वच्छंद अस्तित्व से जीवन से जुड़ा है और संश्लिष्ट रूप में काव्यात्मक आचरण से।
    वर्तमान में अनेक ‘बोनसाई’ विधाएँ हैं, जो शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दनें उठाकर पाठकों से रू-ब-रू हो रही हैं, जिनमें लघुकथाएँ, हायकु, मुक्तक रचनाएँ, दोहे और इन सबके मध्य क्षणिकाएँ- लेखन बदस्तूर जारी है। इनमें से अलबत्ता ‘दोहे-लेखन’ को साहित्यिक मान्यताएँ मिली हुई हैं। लघुकथाएँ साहित्यिक होने का ढिंढोरा पीटती मिलती हैं। मुक्तक छंद उर्दू की क़ताओं के समकक्ष है, हाँ मगर इस छंद को जयशंकर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध मुक्तक-काव्य ‘आँसू’ में निभाया है। ‘हायकु’ जापानी छंद है, जो पाँच-सात-पाँच अच्छरों के अनुशासन से लिख जाकर हिन्दी के अनेक लेखकों के मध्य ‘फैशन’ की तरह लोकप्रिय ‘विधा’ है। परन्तु ‘क्षणिका’ का अपना प्रभा-मण्डल है, यह चुटकुलों सी पढ़ी जाती है, और आस्वाद की स्थिति में सरलता से ग्राह्य है।
     कविता की तरह क्षणिका को साहित्यिक दर्जा प्राप्त नहीं है। यह कोरी-मोरी एक मौखिक विधा है। चाहो तो कह कर सुना दो चाहो तो लिखित में पढ़ा दो। क्षणिका में भाषागत् व्यवहार भी अत्यन्त सस्ते में निपटता है। मुट्ठी भर शब्दों से काम चल जाता है। आधुनिक समय में मोबाइल पर रंग-व्यंग्य से रचे-बसे ‘हास्य-व्यंग्य’ से परिपूर्ण मेसेजेस क्षणिका का ही पर्याय रूप हैं। यूँ कह सकते हैं बजरिये मोबाइल क्षणिका का यह पर्याय रूप इलैक्ट्रानिक मीडिया में बहुत चर्चित है।
     सन् 1980 के बाद क्षणिका लेखन की दिशा में अनेक साहित्यकारों ने अपनी-अपनी कलम आजमाई। डॉ.सरोजिनी प्रीतम और तारादत्त निर्बिरोध ऐसे दो नाम हैं जिन्होंने क्षणिका लेखन की एक परम्परा कायम की। कई ऐसे स्थापित साहित्यकार भी रहे हैं जिन्होंने मान्य विधाओं के उपरांत क्षणिकाएँ भी लिखी हैं, इनमें विष्णु प्रभाकर, भगवत रावत, अज्ञेय, दादा भवानी प्रसाद मिश्र प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने क्षणिका-लेखन को एक परिवेश दिया। मंच से पद्मश्री सुरेन्द्र शर्मा, प्रदीप चौबे, जैमिनी हरियाणवी ऐसे सुप्रसिद्ध नाम हैं, जिन्होंने क्षणिका को मंच से भी सुने जाने का आकर्षण पैदा किया।
    अलबत्ता क्षणिका को साहित्य की विधा नहीं माना गया है। इस पर भी क्षणिका के कथ्य में वे सब बातें मौजूद हैं, मसलन व्यंग्य, वक्रोक्ति, हास्य, श्रंगार (संयोग और वियोग- दोनों प्रकार के), करुणा यानी सम्वेदना इत्यादि-इत्यादि। क्षणिका में बिम्ब और प्रतीक विधानों का व्यापार चलाना क्षणिका लेखक के कलम-चातुर्य का अपना कमाल है। यहाँ कतिपय रचनाकारों द्वारा लिखी गई क्षणिकाओं का विवेचन कर क्षणिका की पैठ में उतरने का यत्न किया जा रहा है, जो क्षणिका के रूप निष्पादन, व्यंग्य-हास्य आदि के निष्पादन में सहायक होगा।
     क्षणिका की अर्थवत्ता, सहजता, भाव-कौशल्य और आस्वाद का वैविध्य विष्णु प्रभाकर की ‘डूबना’ शीर्षक से आई क्षणिका, क्षणिका के वैशिष्ट्य को निरूपित करता है- ‘‘मैंने उसकी कविता पढ़ी/शब्द थे केवल उन्नीस/पर मैं डूबा तो-/डूबता ही चला गया/अवश, अबोल, आंकंठ‘‘। उक्त क्षणिका में क्षणिका की तासीर झलकती है। ‘नाविक के तीर’ की तरह, हृदय के पार हो जाने की आतश (आग) क्षणिका में अवस्थित है।
        भगवत रावत की ‘हमने उनके घर देखे’ शीर्षक क्षणिका में घर को आश्रय-रूप में न लिया जाकर, घर को शस्त्रागार में तब्दील कर उसे खौफ पैदा करने का अड्डा बताया गया है। आतंक और साम्प्रदायिकता के घिनौने साये घरों में ही दिखाई पड़ने लगे हैं। ऐसे में घर राहत का ही नहीं प्रत्युत क़यामत का अर्थ देता प्रतीत होता है- ‘‘हमने उनके घर देखे/घर के भीतर घर देखे/घर के भी तलघर देखे/हमने उनके डर देखे‘‘
        एक अर्थ में हम ‘क्षणिका’ को मुक्त-छंद की नुमाइश भी कह सकते हैं। काव्य साहित्य में मुक्त छंद के प्रणेता महाप्राण निराला रहे हैं। छंदबद्ध रचना जब शास्त्रीय दबाव से बग़ावत की ठानती है तब वह मुक्त छंद की राह में निकल पड़ती है। लेकिन मुक्त छंद का यह तात्पर्य नहीं कि वह लय और रिद्म से खारिज प्रतीत हो। अर्थ का आस्वाद कराने में मुक्त छंद में रची रचना के भीतर भी तासीर की दरकार होती है।
      क्षणिका में सायास कहा नहीं जाता, कहना हो जाता है। सच सदैव ही कड़वा होता है। समाज में सच को कड़वे होने के साथ जोड़कर, सच विषयक एक लोक मुहावरा गढ़ा गया है। कभी-कभी ‘क्षणिका’ जन-प्रचलित मुहावरों की पीठ पर भी आसीन होकर अभिव्यक्त होती है। डॉ. उमेश महादोषी की क्षणिका इसका उदाहरण है- ‘‘पूरी भीड़ खड़ी है/मेरे खिलाफ/दरअसल ‘मैं’ कड़वा हूँ/‘सच’ के कड़वेपन जैसा/और वे सब हैं-/ऐसी कड़वाहट के खिलाफ’’।
        क्षणिका में रचने की पैठ जितनी गहरी होगी, व्यंग्य का आधिक्य उसमें उतना ही वाचाल हो उठेगा। जिस तरह बड़े गुब्बारे को फोड़ने में सुई की नोंक काम कर जाती है, उसी तरह आकार की व्यापकता को घटाकर ‘सौ सुनार की और एक लोहार की’ के अंदाज में भी बात की जा सकती है। क्षणिका ऐसी ही लघु बात की हमकदम होती है। धनंजय सिंह की क्षणिका ‘सूर्यास्त’ इस अर्थ में देखी जा सकती है- ‘‘दीक्षान्त समारोह में/काला चोगा पहनकर/सूरज/नौकरी की खोज में चला’’। उक्त क्षणिका का अर्थ स्पष्ट करने में कोई ‘कथावाचक’ की जरूरत नहीं। प्रस्तुत क्षणिका में ‘समकालीनता का बोध’ स्वमेव है।
        डॉ. अशोक भाटिया की क्षणिका भूख और तृप्ति, शोषित और शोषक, कमजोर और सबल, उपेक्षित और सम्मानित, गरीब और अमीर जैसे कई पारस्परिक रूप में एक-दूसरे के विलोम-से प्रतीत होते मनुष्य और मनुष्य के मध्य की विभाजक रेखा केा दर्शाती है- ‘‘एक पेट-/खाली रूखा तवा/और एक/फूली पूरी-सा’’।
        कतिपय रूप से की गई तुकबन्दियाँ भी कभी-कभी ‘क्षणिका’ का रूप धर लेती हैं। सुमन शेखर की क्षणिका- ‘‘माँ के होने से/मायका है/और चीनी से/मीठे का जायका है‘‘
        प्रकृति का सानिध्य जीवन के लिए वरदान है। लेकिन आगे होकर खुद मनुष्य ही प्रकृति के हाथ काटने लगेगा, तब भला उसे आशीष कैसे प्राप्त होगा। प्रकृति से जुड़कर जहाँ-जहाँ हायकु लिखना फैशन में है, वहीं क्षणिका लेखन भी खूब हुआ है। प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘क्षणिका’ प्रकृति से मिल रहे अभिशापों को रेखांकित करती है- ‘‘कट रहे हैं पेड़/छाया विधवा हो रही है/प्रकृति है क्षुब्ध/ अल्प वर्षा हो रही है‘‘।
        क्षणिका लेखन में प्रेम-प्यार की तस्वीर (बग़ैर फ्रेम के) श्लील और अश्लील दोनों भावों से विजड़ित हुई मिलती है। स्पर्श से प्रेम की तस्वीर रिश्तों में परिणत हो जाती है। अनछुआ प्रेम भावों की शाश्वत सत्ता से जाना जाता है। बलराम अग्रवाल की इसी आशय की क्षणिका है- ‘‘प्रेम को/रखिए दूर शरीर से/भाव-मात्र है वह/नहीं है वस्तु/भौतिक स्पर्श की’’।
       अंत में डॉ. पुरुषोत्तम दुबे की ‘क्षणिका’ वर्तमान कालिक ‘ग्लोबल राज’ की दशा से जुड़ी होकर दर्शाती है कि भले ही वैश्विक गाँव की दृष्टि से विश्व मानवता एक छतरी के नीचे आ गई हो, परन्तु वैचारिकता, स्वार्थपरता और शक्ति प्रदर्शन की दृष्टि से हर देश दूसरे देश से अलग है- ‘‘वैश्विक गाँव/ऐसी नाव/जिसकी पैंदी में छेद/बाहर से एक/भीतर से भेद’’। 
     क्षण की नैमत पाकर लिखी जाये, क्षणिका वही है। क्षणिका बंद मुट्ठी के खुलने का रहस्य नहीं प्रत्युत क्षणिका एक विचार है, जो सूत्र शैली में लिखा जाता है। भाव-प्रवणता के साथ कौतूहल खड़ा करना, क्षणिका का स्वभाव है। ऐसे स्वभाव का निर्वहन उसी क्षणिका-लेखक को करना आता है, जो अर्थों की व्यापक सम्पदा को एक ‘शब्द’ के जिगर में उतार सकता है।

  • ‘शशीपुष्प’, 74 जे/ए, स्कीम नं.71, इन्दौर-452009 (म.प्र.)


नित्यानंद गायेन



क्षणिका :  अभिव्यक्ति की एक अमर विधा

अनुभव जब विशाल हो तो उसे कुछ शब्दों में व्यक्त करना कई बार कठिन हो जाता है या यूँ कहा जा सकता है कि तब शायद शब्द ही कम पड़ने लगता है। पर कभी-कभी हम अपने अनुभवों को बहुत कम शब्दों में भावपूर्ण अर्थ के साथ व्यक्त करने में सक्षम होते हैं। छोटे-छोटे क्षणों की छोटी-छोटी ‘अभिव्यक्तियाँ’ क्षणिकाएँ कहलाती हैं।
         ‘अविराम साहित्यिकी’ के सम्पादक और कवि डा. उमेश महादोषी और सुरेश सपन जी के सम्पादन में अप्रेल 1987 में ‘सीपियाँ और सीपियाँ’ शीर्षक से क्षणिकाओं पर केंद्रित एक अंक निकला था। इस अंक के सम्पादकीय में लिखा है- ‘अमूमन अनुभूति की तीव्रता के साथ भावार्थ की व्यापकता का धनात्मक सह संबंध होता है और यदि नहीं भी हो तो भी तीव्र अनुभूति सूक्ष्म भावार्थ में ही गहराई और वजन का अहसास करा सकती है।’ यहाँ बहुत सटीक बात कही गई है। मनुष्य जब प्रेम या गहन पीड़ा से गुजरता है तो वह उसे व्यक्त करना चाहता है। अभिव्यक्ति के लिए वह शब्द खोजता है और कई बार शब्द खुद सज कर आ जाते हैं। ऐसी अभिव्यक्तियाँ जब सामने आती हैं तो क्षणिकाएँ बन जाती हैं। पढ़ने-सुनने वाला कम शब्दों में कही गई बात आसानी से समझ लेता है । 
    वर्तमान में क्षणिकाओं के प्रचार-प्रसार और प्रकाशन के क्षेत्र में डा. उमेश महादोषी का योगदान उल्लेखनीय हैं। वे उत्तम क्षणिकाओं को खोज-खोज कर अविराम साहित्यिकी पत्रिका और ब्लोग पर प्रकाशित करते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा करते समय उमेश जी यह नहीं देखते कि लेखक नया है या पुराना, चर्चित है या अचर्चित। मतलब उमेश जी केवल अच्छी रचनाओं का चुनाव करते हैं बिना किसी भेदभाव के। इसका प्रमाण है कि डा. उमेश महादोषी के निर्देशन में क्षणिकाओं पर केंद्रित कई विशेषांक का प्रकाशित होना। ’आहट’ सम्पादक- बलराम अग्रवाल और डा. महादोषी, ‘सीपियाँ और सीपियाँ’ सम्पादक- उमेश महादोषी/सुरेश सपन (1987), ‘अंकुर आवाज़’ अतिथि संपादक- उमेश महादोषी (1988), ‘आकाश में धरती नही’ क्षणिका संग्रह- डा. उमेश महादोषी  (1991)। ये सभी विशेषांक इस बात का प्रमाण हैं।
     ‘अंकुर आवाज़’ के सम्पादकीय में डा. महादोषी जी ने लिखा है- “क्षणिका लेखन की आवश्यकता क्यों हुई? प्रश्न के उतर में लोगों का कहना है कि आरंभिक बिम्बवादी अंग्रेजी कवियों द्वारा प्रस्तुत लघु-कविताओं एवं जापानी कविता हाइकू के नई कविता पर प्रभाव का प्रतिफल है। किन्तु सच्चाई यह है कि भारतीय काव्य में उसके उद्भव काल से ही भावात्मक सूक्ष्मता रही है और आकारगत लघु रचनाओं का आदर्श भी उपस्थित रहा है।” अपने इस कथ्य के पक्ष में सम्पादक ने तुलसी, कबीर, रहीम, बिहारी जैसे कवियों के दोहे उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत किया है। यह प्रामाणिक भी हैं। उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘इसी क्रम में एक दृष्टि क्षणिका के उद्भव पर डालना भी आवश्यक है। रामकृष्ण विकलेश क्षणिका का उद्भव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कतिपय लघु कविताओं से मानते हैं। यहाँ उमेश जी ने वरिष्ठ आलोचक डा. नामवर सिंह को भी कोट किया है (चौथे दशक से ही शमशेर बहादुर सिंह इस प्रकार की छोटी कवितायेँ लिखते आ रहें है )।’’
      उपरोक्त कथन से यह साफ़ हो जाता है कि हिंदी में क्षणिका सदृश लेखन भक्तिकाल से ही हो रहा है। आज भी हिंदी और दूसरे प्रादेशिक भाषाओं में क्षणिकाएँ लिखीं जा रही हैं। हिंदी में डा. बलराम अग्रवाल, उमेश महादोषी, नारायण सिंह ‘निर्दाेष’, सुरेश सपन, हेमंत दोषी, शिवकुमार शिव जैसे अनेकों नाम उल्लेखनीय हैं। हिंदी के लगभग हर कवि ने कभी न कभी क्षणिकाएँ जरुर लिखी हैं और आज भी लिख रहे हैं। आगे भी लिखेंगे। क्यों कि यह एक ऐसी विधा है जिससे कवि खुद को बचाकर नहीं रख सकता। दरअसल जिस तरह क्षणिकाएँ लघु होकर भी बड़े-बड़े भावों को बिम्बात्मक रूप से प्रस्तुत करती हं,ै ठीक उसी प्रकार क्षणिकाओं के बारे में लिख पाना कठिन कार्य है। जिस प्रकार तमाम लेखकों/कवियों द्वारा कविता को परिभाषित करने के तमाम प्रयासों के बाद भी आज तक कविता की किसी एक परिभाषा पर आज तक एकमत नही हो पायें ठीक यही बात क्षणिकाओं के संदर्भ में है शायद।
     बहरहाल प्राचीन काल से ही लघ्वाकारीय काव्य की भूमिका मानवीय भावनाओं को व्यक्त करने में अहम् रही है, पहले शायरी व दोहे और अब क्षणिका। जब तक मानवजाति और कविता है तब तक क्षणिका जैसी रचनाएं भी रहेंगी। काव्य की यह विधा भी अमर हैं। जो लोग इस विधा के विस्तार, प्रचार-प्रसार और प्रोत्साहन के लिए निरंतर कार्य कर रहें हैं वे सभी प्रशंसा के पात्र हैं।

  • 4-38/2/बी, राम प्रसाद दुबे कालोनी, लिंगमपल्ली, हैदराबाद-500019, आं.प्र.


डॉ. शैलेश गुप्त ‘वीर’



क्षणिका विधा के निकष

क्षणिका क्या है, क्यों है और कैसे है; अत्यन्त विचारणीय है। क्षणिका, जैसाकि शब्द से ही प्रतिध्वनित होता है, जो क्षण भर के लिये हो, जिसके प्रस्तुत होने की अवधि क्षणिक हो; किन्तु उसका प्रभाव क्षणिक हो, ऐसा बिलकुल नहीं। प्रभावशाली क्षणिका वही होती है, जो बहुत कम समय में व बहुत कम शब्दों में अपनी बात कह दे, किन्तु उसका प्रभाव अधिक समय तक रहे। जैसाकि ‘क्षणिका’ शब्द का वास्तविक पर्याय होता है- ‘आकाश विद्युत’ तो ठीक आकाश विद्युत की भाँति काव्य की इस विधा ‘क्षणिका’ में भी प्रभावोत्पादकता होनी चाहिये; तभी क्षणिका, क्षणिका होती है। मज़हर इमाम की ग़ज़ल का एक शेर है- ‘‘सारे बल्ब बुझे थे लेकिन सारा कमरा रौशन था, लमहा चलते-चलते ठिठका, ठहरा आधी रात गये।’’
     वास्तव में क्षणिका यही लमहा है, जो चलते-चलते ठिठक जाता है और अंधकार के पूर्ण प्रयासों के बावजूद प्रकाश की चकाचौंध से मन-मस्तिष्क को अभिभूत कर देता है व उसकी गूँज-अनूगूँज बहुत समय तक बनी रहती है। कुछ क्षणिकायें दृष्टव्य हैं-
     ‘‘प्रकृति के मानकों पर/जो खरे उतरे,/उन्होंने जी लिया जीवन/नहीं बिखरे!’’ -डॉ. मिथिलेश दीक्षित
    ‘‘ज़िन्दगी से/उम्र की बेवफ़ाई/रोटियों के लिये/टूटा तवा/सूखे कण्डों के लिये/दियासलाई।’’ -डॉ. उमेश महादोषी
     ‘‘धरती की ‘हरियाली’ से/‘हरि’ झाँकते हैं/‘अली’ ताकते हैं!/हरियाली से बैर/‘हरि‘ या ‘अली’ से बैर।’’         -जितेन्द्र ‘जौहर’
    एक विधा के रूप में क्षणिका अपनी स्थापना से आगे बढ़ चुकी है और अब आवश्यकता इस बात की है कि क्षणिका और लघुकविता में विद्वान समालोचक स्पष्ट अंतर रेखांकित करें। क्षणिका और लघुकविता का जो अन्तर है, वह विषयवस्तु को लेकर अधिक है और शिल्पगत कम। आवश्यक नहीं कि बीस या पचीस शब्दों की कविता क्षणिका ही हो या वह निश्चित रूप से लघुकविता ही हो, वह क्षणिका भी हो सकती है और लघुकविता भी। जहाँ तक बात विषय-वस्तु की गहराई से है तो क्षणिका अमूनन अधिक गहरी होती है, किन्तु यह कोई शर्त नहीं है। वास्तव में विषय-वस्तु को लेकर क्षणिका केन्द्रित होती है, भले ही अर्थ-विस्तार की दृष्टि से बहुत अधिक व्यापक हो; जबकि लघुकविता विषय-वस्तु के केन्द्रीकरण के बावजूद पूर्णकेन्द्रित नहीं होती और वह दाँये-बाँये भी हो सकती है।
     हिन्दी साहित्य में विद्रोही कवि के रूप में विख्यात महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की एक लघुकविता देखें, जिसे क्षणिका कदापि नहीं कहा जा सकता; यद्यपि इस लघुकविता का शब्द-विस्तार कई क्षणिकाओं से भी कम है- ‘‘ये दुख के दिन/काटे हैं जिसने/गिन-गिनकर/पल-छिन, तिन-तिन।/आँसू की लड़ के मोती के/हार पिरोये,/गले डालकर प्रियतम के/लखने को शशिमुख/दुःखनिशा में/उज्ज्वल अमलिन।’’ मैं एक उदाहरण अपनी लघुकविता का भी देना चाहूँगा, जिसे अन्यत्र क्षणिका कहे जाने के बावजूद मैं क्षणिका मानने को तैयार नहीं हूँ, बल्कि लघुकविता ही मानूँगा- ‘‘उस समय/भूलोक में/असीम सम्भावनायें थीं।/मनुज के समक्ष/खुली थीं/सभी राहें।/असंख्य अतृप्त इच्छाओं के मध्य/मानव शेष रहा/मानवता लुप्त हो गयी।’’
     अभी कुछ समय पूर्व प्रकाशित ‘सरस्वती सुमन’ के क्षणिका विशेषांक (क्षणिका विधा की स्थापना एवं विकास के क्रम में यह विशेषांक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है) में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को भी बतौर क्षणिकाकार प्रस्तुत किया गया है। इसमें पृ. 31 में उनकी पहली क्षणिका ‘धूल’ शीर्षक से प्रकाशित है, जबकि यह सक्सेना जी की ‘धूल-1’ व ‘धूल-2’ शीर्षक से प्रकाशित कविताओं में पहली कविता ‘धूल-1’ है (सर्वेश्वर दयाल सक्सेना: प्रतिनिधि कवितायें, पृ. 30-31, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003)। यह कविता ‘नई कविता’ का एक पुष्ट उदाहरण है और लघुकविता मानी जायेगी। इसी प्रकार इसी विशेषांक में ‘भेड़िये की आँखें सुर्ख हैं’ शीर्षक से भी एक 6 पंक्तियों और 29 शब्दों की क्षणिका प्रकाशित है, जबकि ‘भेड़िया’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी तीन कविताओं में यह पहली कविता है, जिसमें वास्तविकता में कुल 12 पंक्तियाँ और 55 शब्द हैं। यह बात पाठकीय दृष्टि से अखरती है। लघुकविता का प्रकाशन लघुकविता के रूप में ही होना चाहिये।
     प्रायः यह देखा जा रहा है कि संपादक, समीक्षक या समालोचक तो इस बात को स्वीकार करते हैं कि क्षणिका का विस्तार बहुत अधिक न हो, किन्तु जब यही संपादक, समीक्षक या समालोचक स्वयं एक क्षणिकाकार के तौर पर प्रस्तुत होते हैं तो उनकी सारी सोच, सारी मान्यतायें धरी रह जाती हैं और पचास-साठ या इससे भी अधिक शब्दों की क्षणिकायें प्रस्तुत कर देते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि क्षणिकायें माँगने पर अनेक रचनाकार छपास के मोह से पृथक नहीं हो पाते और अपनी लघुकवितायें या जो उनके दस्तावेज़ों में कम घनत्व की रचनायें संगृहीत होती हैं, उन्हें क्षणिकाओं के तौर पर प्रस्तुत कर देते हैं और संपादक भी अमूनन उनके बड़े क़द को नज़रंदाज़ नहीं कर पाते या फिर सम्बन्धों में दरार न आये तो वे उसे बतौर क्षणिका प्रकाशित भी कर देते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसाकि मुक्तक माँगने पर अनेक रचनाकार अपनी ग़ज़ल के दो शेरों को मिश्रित कर मुक्तक के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं। जिस प्रकार ग़ज़ल के दो शेर मिश्रित कर देने से उसे मुक्तक कह पाना सम्भव नहीं है, ठीक उसी प्रकार लघुकविताओं को क्षणिकाओं के रूप में प्रस्तुत कर देने मात्र से वे कभी क्षणिकायें नहीं हो सकतीं। जिस तरह से 13-11, 13-11 के पैटर्न में लिख देने मात्र से ही किसी काव्य-रचना को दोहा नहीं कहा जा सकता, बल्कि उसके लिये अन्य कई शर्तें भी आवश्यक होती हैं। उसी तरह कम शब्दों में कुछ भी लिख देने से कोई रचना क्षणिका नहीं हो जाती। 
     क्षणिका का अपना शिल्प होता है, अपनी शैली होती है तथा प्रस्तुतीकरण का अपना अंदाज़ होता है। इसे समझने की ज़रूरत है और इसका स्वरूप भी स्पष्ट करने की ज़रूरत है। दरअसल ऐसा इसलिये है कि बहुत से रचनाकार ऐसे हैं, जिन्हें विधा की जानकारी ही नहीं होती और वे लेखन मे व्यस्त हैं, अतिव्यस्त हैं। वे न तो एकलव्य हैं और न ही अर्जुन; वे केवल और केवल द्रोणाचार्य हैं। यह बात केवल क्षणिका के लिये ही हो, ऐसा नहीं है। हर विधा में ऐसा हो रहा है। नई कविता के नाम पर लोगों ने यह समझ रखा है कि जहाँ से मन हो, शुरु कर दो; जहाँ मन हो, ख़त्म कर दो। ऊबड़-खाबड़, जो कुछ मन करे.....। कारण, मुक्तछंद है, कोई बंधन ही नहीं है। अब बंधन न होने का मतलब यह तो नहीं कि तैराकी की जानकारी न हो और समुद्र में गोते लगाओ। यही लघुकथा में भी हो रहा है। कई लोग अपनी व्यथायें और आत्म-संस्मरण या कोई प्रसंग न्यूनाधिक शब्दों में प्रस्तुत कर उसे लघुकथा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और बहुलता से हो रहे प्रकाशन-कार्य इनकी स्वीकार्यता भी दे रहे हैं। दरअसल समस्या यही है कि आज के दौर में आर्कषण के नाम पर अनेक जनों की आकांक्षा है कि वे भी रचनाकार के तौर पर प्रस्तुत हों और कुछ लोग हनक, पहुँच तथा पैसे के कारण सफल भी हो रहे हैं। इसका कारण हिन्दी लेखन का आर्थिक स्तर पर पिछड़ापन भी है, यह अलग से विचार का विषय है क्योंकि इस पर कई लोगों के अपने तर्क और वितर्क हो सकते हैं।
     बहस का एक बिन्दु यह भी है कि क्षणिकाओं में व्यंग्य हो अथवा नहीं, हास्य हो अथवा नहीं। मैं यहां परहेज की बजाय प्रभावोत्पादकता की बात करूंगा। यदि हास्य और व्यंग्य के साथ क्षणिका के शिल्प व प्रभाव का निर्वाह किया जा सकता है, तो उसे स्वीकार्य कर लिया जाना चाहिए। समाज और व्यवस्था में व्याप्त विसंगति जब एक क्षणिकाकार क्षणिका के माध्यम से व्यक्त करता है तो उसमें गहरा आक्रोश होता है; और यह आक्रोश व्यंग्य के रूप में क्षणिका को जीवन्तता प्रदान करता है, उसे सामर्थ्य देता है तथा उसकी कालावधि को सुदीर्घ बनाता है- ‘‘बासठ वर्षीय नेता जी का/‘निःशब्द’ हो जाना/इस बात को दर्शाता है/‘प्यार’/सारी सीमायें पार कर जाता है।’’ -चक्रधर शुक्ल
     जहाँ तक क्षणिकाओं में हास्य परोसने की बात है तो निश्चित रूप से क्षणिकायें हास्य की मोहताज नहीं हैं, किन्तु यदि क्षणिकाओं में बग़ैर फूहड़ता के अनायास या सहज रूप से शालीन हास्य उत्पन्न हुआ है तो ऐसा नहीं है कि उस क्षणिका को क्षणिका के दायरे से बाहर कर दिया जायेगा। जिस प्रकार से हास्य-व्यंग्य की शालीन कविता, कविता ही होती है; उसी प्रकार से हास्य-व्यंग्य की शालीन क्षणिका, क्षणिका ही होगी- ‘‘सुबह-सुबह/कोमल तन पर/बिजलियाँ चमकती हैं,/मेरी पत्नी और चाय/एक साथ उबलती है।’’ -घमंडीलाल अग्रवाल
     यद्यपि हास्यप्रधान क्षणिकाओं के लिये ‘हँसिकायें’ शब्द भी प्रचलित है, किन्तु जिस प्रकार हज़ल, ग़ज़ल का ही प्रतिरूप है; हँसिकायें भी क्षणिकाओं का ही प्रतिरूप है। फूहड़पन, अश्लीलता, अशिष्टता, भौड़ापन या सतही हास्य; ऐसा कुछ भी क्षणिकाओं को हँसिकायें कह देने मात्र से स्वीकार्य नहीं होना चाहिये। ये सब चीजें साहित्य की किसी भी विधा में वर्जित है। विदूषक किस्म के साहित्यकारों ने साहित्य का बाज़ारीकरण करके उसमें हास्य के नाम पर ये सब थोपने की कोशिश की है और इस प्रकार के अनर्गल प्रयोग साहित्य को क्या दिशा देंगे। ‘क्षणिका’ विधा के सुचारु विकास में ‘हँसिकाओं’ के नाम पर चुटकुलेबाजी और अशिष्ट हास्य सबसे बड़ी बाधा है। ये सब कहीं न कहीं वर्तमान में हलके होते समाज (श्रोता समूह) के समक्ष प्रस्तुत मंचीय क्षणिकाओं का प्रिंट क्षणिकाओं के रूप में तब्दीलीकरण के कारण है।
    क्षणिका लेखन में इधर एक बात और देखने को मिल रही है कि कुछ तथाकथित क्षणिकाकार प्रचलित उद्धरणों या सूक्तियों को तोड़-मरोड़ कर क्षणिकाओं के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, यह एक गम्भीर समस्या है। क्षणिका-सृजन में यह बात तो सुनिश्चित ही कर लेनी चाहिये कि यहाँ इतनी बड़ी चादर नहीं है कि उसमें आप कथन, सूक्तियों या प्रचलित उद्धरणों को समेट लें और वे भी बग़ैर उसके सन्दर्भ के, वे जिसके हैं। शब्दों को बदलकर और यदा-कदा उनमें तुकबंदी का मुलम्मा चढ़ाकर उन्हें क्षणिकाओं के रूप में प्रस्तुत कर देने के कार्य को कतई प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिये। एक क्षणिकाकार के पास यदि मौलिक विचार व मौलिक सृजन-धर्मिता नहीं है तो बेहतर है कि वह अन्य किसी विधा में अपनी कलम की स्याही व्यय करें। मुझे लगता है कि हिन्दी क्षणिका साहित्य को ऐसे पीत क्षणिकाकारों की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वर्तमान हिन्दी क्षणिका साहित्य को कई अच्छे और बहुत अच्छे क्षणिकाकार व क्षणिका-संपादक दशा-दिशा देने के साथ ही साथ क्षणिका साहित्य को समृद्धता भी प्रदान कर रहे हैं।
     क्षणिका-सृजन कोई मामूली कार्य नहीं है, बल्कि यह असिधार में चलने जैसा है। ज़रूरत ईमानदारी और सावधानी से चलने की है। एक अच्छी क्षणिका में स्वयं में उद्धरणीयता होनी चाहिये न कि किसी उद्धरण को वह अपने में समेटे। क्षणिका स्वयं में एक मिसाल होनी चाहिये- ‘‘साँप!/तुम सभ्य तो हुये नहीं/नगर में बसना/भी तुम्हें नहीं आया।/एक बात पूछूँ-(उत्तर दोगे)/तब कैसे सीखा डसना/विष कहाँ पाया?’’ -सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
     क्षणिका लेखन असिधार में चलने जैसा है तो गागर में सागर भरने जैसा भी। यह किसी के सामने हाथ में एक अंजलि जल लेकर उसे सागर के दर्शन करा देने जैसा ही है और इस सृजन-कार्य में जो जितनी अधिक दक्षता प्राप्त कर लेगा; क्षणिका साहित्य को वह उतना ही अधिक समृद्ध कर सकेगा।
      क्षणिकाओं में सपाटबयानी एक और गम्भीर समस्या है, किन्तु यह इतनी गम्भीर भी नहीं है, क्योंकि सपाटबयानी किसी भी रचनाकार का प्रस्थान-बिन्दु होता है। जैसाकि मैंने लेख में पहले भी इंगित किया है, यह गम्भीर इसलिये है कि कुछ स्वयंभू द्रोणाचार्य न तो स्वयं मँजना चाहते हैं और न ही किसी वास्तविक द्रोण के समक्ष नतमस्तक होना चाहते हैं। प्रकाशनों की बहुलता उन्हें अवसर देती है और वह प्रस्थान-बिन्दु से आगे नहीं बढ़ पाते और वहीं गोल-गोल घूमते रहते हैं। ऐसी सपाटबयानी किस काम की; जिसका उद्देश्य केवल क्षणिका-निर्माण हो, क्षणिका सृजन नहीं। यही कारण है कि कुछ ऐसे क्षणिकाकार हैं जिनकी उम्र में भी वृद्धि हुई है और क्षणिका परिमाण में भी; किन्तु वे न तो क्षणिका-साहित्य का भला कर पाये हैं और न ही बतौर क्षणिकाकार खुद का ही।
    वर्तमान में जब क्षणिका विधा अपनी स्थापना से आगे बढ़कर सृजन-पथ पर निरन्तर गतिशील है तो ऐसे में क्षणिकाकारों के साथ समालोचकों का भी दायित्व बढ़ जाता है कि वे क्षणिका-विमर्श हेतु क्रियाशील हों और क्षणिका के शिल्प, शैली, विषय-वस्तु व उनके मानकों पर वैचारिक एवं शोधपरक सामग्री प्रस्तुत करें। यह इसलिये भी आवश्यक है कि क्षणिका के शिल्पगत मानकों का निर्धारण किया जा सके। काव्य की प्रत्येक विधा का अपना निश्चित शिल्प-विधान होता है, जिसकी परिधि के अंतर्गत ही रचनाकार अपना ताना-बाना बुनता है। मुझे लगता है कि क्षणिका विधा के सन्दर्भ में अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। यही कारण है कि शिल्प की बात आने पर अनेक क्षणिकाकार अपनी रचनाधर्मिता के अनुरूप ही बातें करते हैं। एक बात और होनी चाहिये, वह यह है कि क्षणिकाओं पर भी शोधपरक कार्य होने चाहिये। मैं इस मसले पर विभिन्न विश्वविद्यालयों व शोध-केन्द्रों में निरन्तर संलग्न हिन्दी विभागों की भी पहल चाहूँगा कि वे क्षणिकाओं पर शोध-कार्य के लिये भी शोधार्थियों को सलाह दें, प्रोत्साहित करें; ताकि हिन्दी साहित्य की इस महत्वपूर्ण, सारगर्भित तथा अपेक्षाकृत परवर्ती विधा को भी सही दशा व दिशा मिलने में मदद मिले।
    अन्त में मैं ‘अविराम साहित्यकी’ के संपादक डॉ. उमेश महादोषी जी, जो स्वयं एक अच्छे क्षणिकाकार हैं, को इस क्षणिका विशेषांक के पुनीत प्रकाशन हेतु असीम शुभकामनायें देना चाहूँगा; न केवल इसलिये कि वे यह प्रकाशन-संपादन कर रहे हैं, बल्कि इसलिये भी कि वे पिछले ढाई दशक से भी अधिक समय से क्षणिका के संवर्धन, विकास तथा पहचान के लिये निरन्तर क्रियाशील हैं। उन्होंने ‘सीपियाँ और सीपियाँ’, ‘आहट‘ तथा ‘अंकुर आवाज़’ के क्षणिका विशेषांक के संपादन के माध्यम से व ‘अविराम साहित्यकी’ त्रैमासिकी के माध्यम से अनवरत देशभर के क्षणिकाकारों को समेटने का प्रयास किया है, साहस किया है। ईश्वर उन्हें आगे भी यह साहस प्रदान करे।

  • अध्यक्ष :  अन्वेशी संस्था, 24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601

शोभा रस्तोगी 'शोभा' 



क्षणिका :  मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति    
                                            
   साहित्याकाश में अनेक विधा-नक्षत्रों की रौशनी जाज्वल्यमान है। क्षणिका भी ऐसा एक तारा है जो टिमटिमाते हुए काव्य धारा को आलोकित कर रहा है। पारंपरिक छंद विधान से परे सरक क्षणिका ने निराला कोना खोजा। असीम रसमयी संभावनाओं से रौशन है यह क्षणिका-कोना। लघुकथा की भांति क्षणिका अपने अस्तित्व हेतु सदा संघर्षरत रही और कमोबेश आज भी है। वर्ड्सवर्थ के शब्दों में- “poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings” अर्थात ‘‘कविता के लिए वेगपूर्ण भावनाओं का प्रभावशाली बहाव आवश्यक है। क्षणिका भी यही कहती है- प्रबल संवेदना की प्रबल व प्रभावपूर्ण त्वरित अभिव्यक्ति। क्षणिका की लहरें मानवमन की भावभित्ति से टकराती हैं और हृदय आनंद-सिन्धु में गोते लगाने लगता है। अल्प शब्द सामर्थ्य में भाव गहनता जो उत्ताल लहरों को उठने पर विवश कर दे, ऐसी रचना के रूप में क्षणिका आम आदमी के जीवन में तुरंत अधिकार पूर्वक प्रवेश पाती है। विष्णु प्रभाकर जी की क्षणिका उदाहरणार्थ प्रस्तुत है- ‘‘त्रास देता है जो/वह हँसता है/त्रसित है जो/वह रोता है/कितनी निकटता है/हंसने और रोने में।’’ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की क्षणिका थोड़े में बहुत अधिक का भाव उजागर करती है- ‘‘घास की एक पत्ती के सम्मुख/मै झुक गया/और मैंने पाया कि/मै आकाश छू रहा हूँ।’’ 
     क्षणिका नाम से ही द्योतक है- क्षण विशेष की कौंध, जो विद्युत सी चमकती, गरजती पूरे वातावरण को रोशन कर जाती है।...इसमें समाहित है- गहन भावों की सघन, प्रबल, उदात्त, सटीक अभिव्यक्ति जो पाठक तट पर एक क्षण में सहस्त्र रस-तरंगे टकराती है। हरदिल अजीज मशहूर साहित्यकार अमृता प्रीतम जी के शब्दों में कविता के स्याह आखर से प्रेम की एक बानगी प्रस्तुत है- ‘‘इश्क का पंछी/मेरी मुंडेर आता/और काले अक्षरों का/दाना ढूंढता....’’। साहित्यकार अमरजीत कौर जी की अनुभूतिजन्य गहनता दृष्टव्य है- ‘‘खूँटी से बाँधकर रखी थी/कब से/तेरी यादें/तुझे सामने देखते ही/रस्सा तुड़ाकर भाग गईं।’’ 
     क्षणिका महज एक वक्तव्य नहीं है। रसात्मक अभिव्यक्ति व त्वरित सम्प्रेषणीयता क्षणिका के प्राण है। कोई गोताखोर यकायक नदी में कूद अतल गहराई में जा अमूल्य रत्न निकाल लाए। वह रत्न ही क्षणिका है। वह नदी के वेग, स्वच्छता, गहराई, सुरम्य तटों का चित्रण नहीं करता। क्षणिका एक झरना है। अत्यंत ऊंचाई से जल की सघन धाराएँ परस्पर आबद्ध हो धवल पारदर्शिता लिए, मधुरिम झंकार के साथ नीचे गिरती है तो दूधिया ठन्डे धुएँ की घनीभूत दृश्याभा का मूर्तरूप ले लेती है । उस पल विशेष को महसूसते हुए- वाह! अद्भुत!, स्वर निसृत होता है। वह विशेष पल ही क्षणिका का अस्तित्व निर्धारित करता है। उसकी त्वरित सम्प्रेषणीयता ही क्षणिका का प्राण है। प्रतिभा कटियार प्रेम की अनोखी परिभाषा गढ़ती हैं- ‘‘तुमसे मिलकर/हर बार/और तन्हा हो जाती हूँ मैं/तुमसे बिछुड़कर/होती जाती हूँ/तुम्हारे करीब’’। कवयित्री हरकीरत हीर प्रेम भावना को जुग्नुओं की रौशनी से सींचती हैं- ‘‘मोहब्बत/ खिलखिलाकर हंसने ही वाली थी/के गुजर गयीं/फिर कुछ अर्थियां/करीब से...!!’’
     क्षणिका में अनुस्यूत व्यापक भाव बिम्ब, प्रतीक, अनेकार्थी शब्दों की अभिव्यक्ति से मुखर होता है। शब्द शब्द नहीं रहता। नाना सार्थक संरचनाशील शब्दों का संसार रच जाता है। एक शब्द से छिटके इन्द्रधनुषी अर्थ पाठक को रससिक्त कर देते हैं। मिथलेश दीक्षित जी की अर्थवान प्रस्तुति- ‘‘घर दौलत से/पटा हुआ है/पर अन्दर से/बँटा हुआ है।’’ रा. का. हिमांशु जी की क्षणिका स्त्री व्यथा को आवाज देती है, तो कुछ इस तरह की प्रतिध्वनि करती है- ‘‘औरत की कथा/हर आँगन में/तुलसी चौरे से/सींची जाती रही व्यथा।’’ एक बिम्ब को प्रस्तुत कर कवि सीधा गहन उत्तालता पर रचना छोड़ता है, जहाँ पाठक मन स्वयं को रचना गिरफ्त में पाता है। समसामयिक जीवन से दो चार होते हुए कवि नई संभावनाओं के लिए भी द्वार खोल देता है। लक्ष्मीशंकर बाजपेयी जी अंतर्भूत अनुभवों की सघनता लिए रचना पटल पर आते है- ‘‘कमरे में सजी/तुम्हारी बड़ी सी तस्वीर से/कहीं ज्यादा परेशां करती हैं/बाथरूम में चिपकी/तुम्हारी छोटी-छोटी बिंदिया’’। 
     साहित्य मात्र सपाटबयानी न होकर अर्थों पर पड़े शाब्दिक घूंघट को हटा सौन्दर्य को अवलोकित करने-कराने की कला है, जिसका ताप हृदयस्थल पर कभी अपना ओज कम नहीं करता। सांकेतिक शब्दावली क्षणिका को अधिक मुखर करती है किन्तु क्लिष्टता.....?...ऐसी अभिव्यक्ति अधिक साँसें नहीं ले पाती। प्रसिद्ध चित्रकार-साहित्यकार इमरोज कला को जीवन के लिए उद्धृत करते हैं- ‘‘जब से/कला को होश आया है/वो.../जिन्दगी बनना चाहती है।’’
     अनेक सिद्धहस्त रचनाकारों ने क्षणिका संसार में रंगीले-सजीले रंग भर भाव चित्र उकेरे हैं.....नए आयाम दिए हैं.... दर्द की गहरी छुअन की नदियाँ प्रवाहित की हैं। जितेन्द्र जौहर, हरकीरत हीर, सरोजिनी प्रीतम, देवराज पथिक, देवेन्द्र दीपक, मनोहर लाल बाथम, उमेश महादोषी, बलराम अग्रवाल, प्रदीप चौबे, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रवि शर्मा मधुप, सूर्य कुमार पाण्डेय, सुधीर, रमा द्विवेदी, नरेश सक्सेना, इमरोज, केदार नाथ अग्रवाल, प्रभाकर माचवे आदि के नाम क्षणिका गगन में सदा टिमटिमाते रहेंगे। मुद्रित व् अंतर्जालीय पत्रिकाओं में क्षणिका अपने पूर्ण सौन्दर्य के साथ उपस्थित हैं। 
     अटटहासों के बीच विस्मित मुस्कान है क्षणिका। खिलती पुष्प पाँखुरी को हौले से स्पर्श करने पर सुकोमल अहसास का नाम है क्षणिका। ‘‘मै हूँ/यहीं कहीं/तुम्हारे भीतर/गहन कही-अनकही/किसी पल जान लो मुझे/क्षणिका’’। हाँ.....मैं क्षणिका ही तो हूँ। 

  • आर.जेड. एण्ड डी-208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली - 110077


(ब) क्षणिका को रेखांकित करती वैचारिक टिप्पणियाँ 


डॉ. डी. एम. मिश्र



क्षणिका में प्रबल संभावनाएं हैं

जिस प्रकार से एक छोटा-सा ‘दोहा’ या ‘शेर’ अपने आपमें मुकम्मल और पूर्ण होता है, उसी प्रकार से ‘क्षणिका’ भी। जैसा क्षणिका नाम से स्पष्ट है, जो क्षण भर की हो। अर्थात जिसे क्षण मात्र में पढ़ लिया जाये। यहाँ मैं अपने पाठकों को बताता चलूँ, जिसे क्षण मात्र में पढ़ तो लिया जाये, लेकिन जिसका प्रभाव दूर तक जाये और देर तक टिके। वही वास्तव में ‘क्षणिका’ होती है। एक छोटी-सी क्षणिका में बड़ी बात कहने की सामर्थ्य होती है। वस्तुतः क्षणिका ‘गागर में सागर’ चरितार्थ करने वाली विधा है। क्षणिका का एक और बड़ा गुण यह है कि छोटी और चुटीली होने के कारण वह तुरन्त याद हो जाती है, जबकि बड़ी-बड़ी कविताएँ आसानी से याद नहीं हो पातीं। ‘मुक्तक’ और ‘रुबाई’ की तरह इन दिनों ‘क्षणिका’ का चलन भी बढ़ गया है। मुक्तक और रुबाई पर क्षणिका इसलिए भारी पड़ती है क्योंकि ‘विचार’ और ‘बिम्ब’ क्षणिका में अधिक होता है।
     क्षणिका की इसी प्रासंगिकता और उपयोगिता को देखते हुए डेढ़ दशक पूर्व इस दिशा में मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ और क्षणिकाएँ लिखनी मैंने भी शुरू कीं। कुछ क्षणिकाएँ तो इतनी अच्छी बनीं कि बाद में विस्तार पाकर कविता भी बनीं। पर, उनका मौलिक रूप क्षणिका ही है। मेरा मानना है जिस तरह कथा के लिए ‘चरित्र’ प्रधान होता है, उसी तरह कविता के लिए ‘बिम्ब’। फिर क्षणिका तो बिना बिम्ब की ताकत पाये असरदार हो ही नहीं सकती। अर्थात व्यंजना से ही क्षणिका बड़ी या छोटी होती है। शब्दों की संख्या से नहीं। 
    दूसरी बात छोटी-सी क्षणिका में गजब की सम्प्रेषणीयता होती है। आज जब हिन्दी की लम्बी कविताएँ बौद्धिक संजाल में उलझी हैं और सामान्य पाठक उनसे बिल्कुल तटस्थ हो चला है, ऐसे में क्षणिका, कविता की पठनीयता को बरकरार रखने का सुगम साधन है। सामान्य पाठक क्षणिका में पूर्ण लुत्फ लेता है। जैसाकि मैंने पहले कहा है क्षणिका अपने आप में पूर्ण होती है, उसे किसी अन्य प्रसंग अथवा तारतम्य की जरूरत नहीं पड़ती। क्षणिका में चूँकि ‘बिम्ब विधान’ प्रमुख होता है, इसलिए ‘सपाटबयानी’ को कोई स्थान नहीं। यानी ‘क्षणिका’ से यदि कोई बात नहीं निकल कर आ रही है तो वह ‘निर्जीव’ है, निष्क्रिय है।
    क्षणिका का विषय कुछ भी हो सकता है। वह प्रेम भी हो सकता है। प्रकृति भी हो सकता है। आध्यात्म भी। राजनीति और सामाजिक सरोकार भी। या वह अन्य कोई भी विषय, जो सृजन से सम्बन्धित हो। लेकिन बहुधा देखा यही जा रहा है कि वर्तमान में बड़े-बड़े कवि सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों को अपनी क्षणिका का विषय बनाये हुए हैं। बड़ी सुन्दर क्षणिकाएँ रची जा रही हैं। इन परिस्थितियों में कोई चुटकुला को ‘क्षणिका’ कैसे कह पायेगा। ‘क्षणिका’ अपने आप में स्पष्ट है। यही इसकी शक्ति है। यह विधा अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो चुकी है। अतः किसी अन्य विधा-सी रचना को क्षणिका में शुमार किया ही नहीं जा सकता। क्षणिका में अद्भुत चमत्कार पैदा करने की ताकत होती है। इसके संवर्द्धन की प्रबल संभावनाएँ हैं। इन्हीं संभावनाओं के बल पर कवियों का एक बड़ा वर्ग क्षणिका लेखन में तल्लीन है। 

  • 604, सिविल लाइन, निकट राणा प्रताप पी.जी. कालेज, सुल्तानपुर-228001 (उ.प्र.)

डॉ. शरद नारायण खरे



क्षणिका बिम्ब या व्यंग्य युक्त छोटी कविता है

वर्तमान के तीव्रता वाले युग में क्षणिका एक पृथक व मान्य विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। दरअसल वर्तमान में संक्षिप्त पर सारगर्भित पढ़ने का महत्व बढ़ा है। क्षणिका को छोटी पर ऐसी सार्थक कविता के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, जिसमें या तो बिम्ब हो या व्यंग्य। सीधे-सपाट ढंग या चुटकुला रूप में प्रस्तुत लघु रचना को कदापि भी क्षणिका नहीं माना जा सकता। क्षणिका को सरल-सहज मानकर उसे हल्के से लेना भी त्रुटिपूर्ण हो सकता है। यह तो सही है कि बड़ी (लम्बी) कविताओं के प्रति उत्पन्न नीरसता/उबाऊपन ने क्षणिका के उद्भव के लिए सार्थक कार्य किया है, पर यह भी निश्चित ही है कि क्षणिका स्वयं का एक गरिमापूर्ण, विशिष्ट व उत्कृष्ट स्थान वर्तमान में बना चुकी है। साथ ही यह भी यथार्थ है कि वर्तमान में क्षणिका ने अपनी सरसता, गुणवत्ता व प्रभावोत्पादकता के कारण साहित्य में स्वतंत्र विधा के रूप में अपना स्थान बना लिया है।
    वस्तुतः मैं यह बात स्वीकार करता हूँ कि क्षणिका में यह गुण सन्निहित होता है कि वह अल्प शब्दों में अधिकाधिक कहने का सामर्थ्य रखती है। गंभीर व हास्य-व्यंग्य दोनों रूपों में अपनी बात क्षणिका के द्वारा कही जा सकती है। पर क्षणिकाकारों को सपाटबयानी से बचना चाहिए। मूलतः क्षणिका के माध्यम से समकालीन हालातों को ही प्रतिबिम्बित करना चाहिए। वस्तुस्थिति यह है कि वर्तमान के रचनाकार क्षणिका को समकालीनता बोध व मानवीय सरोकारों से पूर्ण कविता को प्रस्तुत करने का सटीक माध्यम मानकर चल रहे हैं। पर फूहड़पन व स्तरहीन मनोविनोद को कदापि भी क्षणिका का अंग नहीं माना जा सकता है।
   क्षणिका का सृजन अतिगंभीरतापूर्वक होने पर ही क्षणिका प्रभावशाली स्वरूप ग्रहण कर पाती है। क्षणिका को स्तरीय व प्रभावपूर्ण बनाने के लिए क्षणिकाकार को सतत् श्रम व चिंतन करके लिखने का अभ्यास करना अपरिहार्य होता है।

  • विभागाध्यक्ष: इतिहास, शासकीय महिला महाविद्यालय, मंडला-481661(म.प्र.)


चक्रधर शुक्ल



शीर्षक क्षणिका को प्रभावी बनाता है

क्षणिका कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने का सामर्थ्य रखती है, जिसका प्रभाव क्षणिक न होकर पाठकों को देर तक मथता रहता है। ‘क्षण प्रभा’ का जो तेवर है, वही तेवर क्षणिका में होना चाहिए/या आना चाहिए। वही तेवर आने पर क्षणिका देर तक ध्वनित होती रहती है। अभिव्यक्ति को कम शब्दों में व्याख्यायित करने की महारत लगातार पठन-पाठन-लेखन से आती है, या यों कहे हासिल हो जाती है।
     बिना शीर्षक के मुझे क्षणिका स्वीकार नहीं। उपयुक्त शीर्षक क्षणिका को और भी प्रभावी बनाता है। बिना शीर्षक के क्षणिका मंच से, प्रभावी प्रस्तुतीकरण के साथ पढ़ी जा सकती है, उसे वाह-वाही भी मिलेगी परन्तु पत्र-पत्रिकाओं में बिना शीर्षक के क्षणिका-संसार में डूबना बड़ा कठिन हो जाता है। ये मेरे अपने विचार हैं, इन विचारों से अन्य क्षणिकाकारों का सहमत होना, न होना उनके दृष्टिकोंण की बात है। उदाहरण के लिए मैं तीन क्षणिकाकारों की क्षणिका नीचे दे रहा हूँ। इन्हें पहले शीर्षक के साथ पढ़ें, फिर बिना शीर्षक के पढ़ें, मनन करें...। फिर पाठकीय प्रतिक्रिया दें कि आप मेरे विचारों से सहमत हैं कि नहीं....अगर सहमत हैं तो कहाँ तक...!
1. गणित :  ‘‘रिश्तों की ‘आधार रेखा’ पर/आशाओं का ‘लंब’/जितना ऊँचा उठता जायेगा,/निराशाओं के ‘कर्ण’ की लंबाई/बढ़ती जायेगी!’’ -जितेन्द्र जौहर! 2. हादसे :  ‘‘जीवन के यज्ञ में/सामग्री बन/स्वाहा होती रही/हादसों के/मंत्रों का/उच्चारण थमा नहीं!’’ -डॉ. सुधा ओम ढींगरा। 3. पीलिया :  ‘‘मुटिठ्याँ खाली थीं/रोग बढ़ गया/बेटी के हाथ/पीले करने के प्रयास में/बाप ‘पीला’ पड़ गया!’’ -अशोक अंजुम।
        आ रहे तमाम संकलनों में ऐसी क्षणिकाएँ सामने आ रही हैं, जो लघु कविताएँ हैं। ‘क्षणिका’ विषय-वस्तु को केन्द्रित करके लिखी जाती है। विषय-वस्तु के भटकाव से क्षणिका का सौंदर्य नष्ट होता है या यों कहें कि वो लघु कविता का रूप ले लेती है। हम उसे क्षणिका कहकर संतुष्ट भले ही हो लें, पर वह क्षणिका न होकर लघु कविता होती है। इधर आये कई क्षणिका संकलन इस बात के गवाह हैं। क्या कारण हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। अतिथि संपादक उन्हें क्षणिका के रूप में स्वीकार कर अपनी भूमिका की इतिश्री करता है या उसकी कोई और मजबूरी है! लघु पत्रिकाओं को आर्थिक सम्बल की जरूरत पड़ती है, बिना सहयोग राशि के आज के समय में अनवरत पत्रिका निकाल पाना टेढ़ी खीर है। लगता है ‘टेढ़ी खीर’ सम्पादकीय तेवर को लचीला बनाता है।
     ऐसे में अविराम साहित्यिकी के सम्पादक डॉ. उमेश महादोषी की प्रशंसा करता हूँ, जिन्होंने पत्रिका में प्रभावी, सारगर्भित, स्तरीय रचनाएँ देने का प्रयास बड़ी ईमानदारी से किया है। इसका ये मतलब नहीं कि अन्य पत्रिकाएँ ऐसा नहीं कर रही हैं, वो भी कर रही हैं। हर एक की अपनी-अपनी सीमाएँ, अपने-अपने मापदण्ड हैं। अपना सोच है, परख है, सम्पादकीय सूझ-बूझ है।
    हाँ, मैं भी क्षणिका में सपाटबयानी से बचने का प्रयास करता हूँ। हास्य-व्यंग्य को लेकर मेरे मन में कोई भ्रान्ति नहीं है। हास्य-व्यंग्य में फूहड़ता, दो अर्थी, चुटकुलों के प्रयोग को मैं भी मान्यता नहीं देता। वो क्षणिकाएँ मंचों के लिए स्वीकार हो सकती हैं, क्षणिका संसार में अतिक्रमण करती ऐसी क्षणिकाएँ स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। भले ये क्षणिकाएँ किसी ख्यातिप्राप्त क्षणिकाकार की ही क्यों न हों...!
     हाँ, यदि क्षणिकाकार हास्य-व्यंग्य के माध्यम से समाज को कोई संदेश देता है, सोचने को विवश करता है, तो उसे क्षणिका के रूप में स्वीकारने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैंने भी अनेक क्षणिकाएँ इन्हीं मानकों के अनुरूप लिखी हैं।
     अन्त में मैं डॉ. उमेश महादोषी के इस दृष्टिकोंण से सहमत हूँ कि किसी व्याख्या या परिभाषानुमा रचना में शब्द-कौशल दिखाकर उसे क्षणिका के रूप में प्रस्तुत करना कवि की सामर्थ्य को संकुचित करता है। कवि को ऐसी प्रत्यक्ष कोशिशों से बचना चाहिए।

  • एल.आई.जी.-1, सिंगल स्टोरी, बर्रा-6, कानपुर-208027 (उ.प्र.)


रमेश कुमार भद्रावले




क्षणिका :  एक विधा

काव्य की सुन्दर उक्ति ही क्षणिका हो सकती है। छोटी-छोटी लकीरों में आकाश-पाताल एवं समस्त जन-जीवन को बसाने की कोशिश की जाती है। कुछ लकीरों से साहित्य को संवारने की कला ही क्षणिका है। बगीचे का सबसे सुन्दर फूल ही क्षणिका है।
    समय के साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन आया है। आज आदमी के पास सबसे ज्यादा कमी सिर्फ समय की है। अतएव क्षणिकाओं के माध्यम से आदमी साहित्य का पूरा-पूरा आनंद उठा लेता है। वास्तव में क्षणिका साहित्य की अनूठी विधा है, जिसे आज के युग में अपनाना साहित्य और समाज की आवश्यकता है। क्ष्णिकाकार को बहुत ही मजबूती से अपने पग आगे की ओर बढ़ाना होगा। क्षणिका को साहित्यिक ऊष्मा-ऊर्जा एवं शक्ति प्रदान करनी होगी। तभी क्षणिका निखरकर समाज के सामने आयेगी और समाज उसे सहर्ष स्वीकार करेगा।
     साहित्य में अच्छी क्षणिका दर्शन के समान है, जिसे ढूँढ़ना पड़ता है। सुमित्रानन्दन पंत ने भी अपने छायावादी काव्य में कहीं-कहीं क्षणिकाओं का प्रयोग किया है। लेकिन वह हमें खोजना पड़ता है। जैसे- ‘‘वन की सूनी डाली पर सीखा/कली ने मुस्काना/पर मैं न सीख पाया- अब तक/सुख से दुख को अपनाना!’’ यह रचना देखने पर क्षणिका ही लगती है। 
    गहन विचार और चिंतन से युक्त खोजी गई यह असरदार विधा बिल्कुल नई भी नहीं है। लघु काव्य रूपों को पुराने समय से ही प्रयोग किया जा रहा है। बिहारी के दोहे भी असरदार थे। ये साहित्य की शक्ति को अब एक नया रूप-नाम दिया जा रहा है, वह है क्षणिका। आने वाले समय में क्षणिका अपने पूरे जोश के साथ साहित्य में तथा समाज में अपना स्थान बनायेगी तथा नवीन साहित्य का मार्गदर्शन करेगी।

  • गणेश चौक, हरदा, म.प्र.

गुरुनाम सिंह रीहल



क्षणिका जीवन के साथ जुड़ी रचना है

सन् 1968 में मैंने जब लिखना शुरु किया, तब मेरा रुझान कहानी, लेख, व्यंग्य के साथ काव्य सृजन की ओर भी था, जिसमें मुक्तछंद, व्यंग्य के साथ क्षणिकाएं भी शामिल थीं। उन दिनों मैंने महसूस किया कि मुझे अन्य विधाओं से उतना अच्छा रिस्पांस नहीं मिल रहा है, जैसा क्षणिकाओं के माध्यम से मिला। उन दिनों यदि किसी पत्र-पत्रिका में क्षणिकाएं भेजता तो वे छप ही जाती थीं। इससे मेरी दिलचस्पी ‘क्षणिकाओं’ की ओर विशेष रूप से बढ़ी। मेरा उत्साह बढ़ता गया कि विद्वत जन और पाठक मेरी क्षणिकाओं को अधिकाधिक संख्या में पढ़ेंगे और मुझे आगे बढ़ने के अवसर सुलभ होते चले जायेंगे।
    क्षणिका आज की व्यस्तताओं के दौर में अपने तत्क्षण प्रभाव के कारण सुधिजनों एवं पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर प्रतिष्ठा अर्जित कर रही है। मानवीय जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र अछूता नहीं है, जहां क्षणिकाओं के माध्यम से रचनाकारों ने कलम न चलाई हो। चूंकि  क्षणिका लघुकाय काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, इसके सृजन में प्रतीकों एवं बिम्ब का अपना महत्व है। इससे संप्रेषण को गति मिलती है। सपाटबयानी से क्षणिका में प्रभाव एवं काव्य सौंदर्य लाना मुश्किल कार्य है। यद्यपि यह बात साहित्य की अन्य विधाओं के सन्दर्भ में भी समान रूप से लागू होती है।
     संपूर्ण रूप में क्षणिकाएं किसी भूमिका की मोहताज नहीं हैं। वह जब भी किसी समस्या एवं मानवीय सरोकारों के साथ सामने आती हैं, तो उसको बड़ी शिद्दत व साहस के साथ पेश करती है। उसका तालमेल आम लोगों की मुश्किलों एवं तकलीफों से जुड़ जाता है। ऐसे में उसकी जिम्मेवारी साफ तौर पर दिखाई देती है। यह बात बड़ी कविताओं के साथ कम दिखाई देती है। विशेष तौर पर बड़ी कविताओं के साथ जुड़ाव बनाने में मुश्किल आती है।
    एक अच्छी रचना के लिए हल्के-फुल्के हास्य और चुटकुलेबाजी से सतर्कता बहुत जरूरी होती है। क्षणिकाओं के परिप्रेक्ष्य में व्यंग्यात्मक पुट के साथ रचनात्मक प्रयासों को आगे बढ़ाया जा सकता है।
    क्षणिका में मौलिकता के प्रति सजगता भी जरूरी है। बिना मौलिकता को अपनाये गंभीर क्षणिका लेखन की कल्पना करना बेमानी है। मौलिक क्षणिकाएं ही श्रेष्ठ हो सकती हैं और अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों व उम्मीदों को उजागर करने में सफल होंगी।
     क्षणिकाएं जीवन के साथ जुड़ी हुई रचनाएं हैं। वे जिस खूबी के साथ विभिन्न घटनाओं, झंझावातों व उथल-पुथल को उजागर करती हैं और उनके यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं, उससे झूठ, फरेब, तिकड़मबाजी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार की सच्ची तस्वीर सामने आ जाती है। वे तथाकथित व्यवस्था, दोगले चरित्रों व नकाबपोशों से जूझते हुए इस प्रण को साथ लेकर मुट्ठियां तान लेती हैं कि ये मानवता का खून चूसने वाले एक दिन कठघरें में खड़े होंगे और बेहतर दुनियां की सृजना होगी। यह सुकृत्य क्षणिका ने अपने अनूठे लघु कलेवर में कर श्रेष्ठता का परिचय दिया है। 

  • सहृदय निवास, 1552, समीप महानद्दा, जबलपुर-482001(म.प्र.)   


गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’



क्षणिका का स्वरूप

साहित्य की मान्य विधाओं में क्षणिका का नाम नहीं है तथापि वर्तमान काल की पत्र-पत्रिकाओं में यथेष्ट स्थान मिल रहा है। इसका नामकरण भी आधुनिक (नई) कविता के किसी कवि के मन की उपज है। जनक छंद, हँसिका, हाइकु जैसी लघु कविताएँ इसी कोटि में आती हैं। इसकी परिभाषा, स्वरूप, गुणधर्म, प्रवृत्ति गढ़ना समर्थक कवियों की देन है। लघु कथ्य में भी प्रभाव तथा प्राण तत्व होना चाहिए। मात्र चुटकुले या द्विअर्थी शब्दों से कौतूहलपूर्ण हास्य उत्पन्न करना अभीष्ट नहीं होना चाहिए। डॉ. सरोजनी प्रीतम जैसे रचनाकारों की ....(हल्की) हँसिकाएं कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित होना दुर्भाग्यपूर्ण है। बिडम्बना यह है कि मनीषी साहित्यकार एवं पाठक इन चुटकियों के विशिष्ट आशय को समझकर ‘खी-खी’ करते हैं। स्तरहीन प्रस्तुतियों को स्थान देने के लिए पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक भी कम दोषी नहीं हैं, जो रचना को कम, रचनाकार के नाम को अधिक महत्व देते हैं। यही कारण है कि काव्य का ‘क ख ग’ न जानने वाले भी क्षणिका क्षण भर में रच देते हैं। अस्तु क्षणिका के लिए भी छंद विधान का नियंत्रण होना चाहिए, जिससे गर्हित लेखन से बचा जा सके।
     देहरादून से प्रकाशित ‘सरस्वती सुमन’ त्रैमासिक (सम्पादक डॉ. आनन्द सुमन सिंह) का क्षणिका विशेषांक अक्टूबर-दिसम्बर 2012 आ चुका है। अविराम साहित्यिकी त्रैमासिक की क्षणिका विशेषांक की योजना प्रशंसनीय है। अस्तु रचनाओं के प्रकाशन के पूर्व सम्पादक गुरतर दायित्व तथा संकल्प अवश्य ध्यान में रखें, जिससे विशषांक की सार्थकता सिद्ध हो सके।

  • 117, आदिलनगर, लखनऊ-226022(उ.प्र.)


राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’




क्षणिका के मानक निर्धारण की जरूरत है 

‘क्षणिका’, जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि क्षणिक अर्थात गागर में सागर भरना। प्रायः 4 से 8 पंकितयों की कविता को क्षणिका माना जाता है, जिसका अपना शिल्प होता है। क्षणिका में कोई मात्रा या छन्द का बंधन नहीं है, वह इनसे मुक्त है। कुछ क्षणिकाएं तुकांत होती है और किसी-किसी में वह भी नहीं। यदि आधार की बात करें तो छोटे आकार व गहन प्रभाव वाली रचना क्षणिका है। लघु आकार के बावजूद क्षणिका आज बहुत लोकप्रिय हो रही है। आज अनेक कवियों के क्षणिका संग्रह प्रकाशित हो चुके है। प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में क्षणिकायें प्रकाशित हो रही है। कुछ पत्रिकाओं के क्षणिकाओं पर विशेषांक भी प्रकाशित हो रहे है। 
        आज क्षणिका का मानक निर्धारित करने की जरूरत है तभी यह विधा और अधिक विकसित होगी और अपना स्वतंत्र वजूद कायम रख सकेगी। वर्ना आज कवि अपने मन से नाम रखकर अपना-अपना की लड़ाई लडे़ंगे। जिस प्रकार हाइकु, जनक, माहिया, दोहा, कुण्डली, आदि का मानक निर्धारित हो चुका है, इसी प्रकार क्षणिका का भी मानक निर्धारित करना परम आवश्यक है। क्षणिका के अस्तत्व को बचाये रखने के लिए साहित्यकारों एवं विद्वानों को इस दिशा में शीघ्र कदम उठाने ही हांेगे। आज क्षणिका को हल्के-फुल्के हास्य, चुटकुले व नकल आदि से भी बचाना आवश्यक हो गया है। इसीसे क्षणिका का विधा के रूप में विकास संभव है।
        मैंने क्षणिका लिखना सन 1997 में शुरू किया था तथा अब तक मेरी लगभग 150 से अधिक क्षणिकायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। मेरा एक क्षणिका संग्रह ‘तीर निशाने पर’ भी प्रकाशन हेतु तैयार है जिसमें मेरी 300 क्षणिकायंे हैं। 

  • अध्यक्ष-म.प्र. लेखक संघ, नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी, टीकमगढ-472001 (म.प्र.)।

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