आपका परिचय

सोमवार, 19 सितंबर 2011

तीन किताबें

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में फिलहाल तीन पुस्तकों की समीक्षा ही रख पा रहे हैं। जैसे-जैसे सम्भव होगा, अन्य प्राप्त पुस्ताकों पर समीक्षा/परिचयात्मक टिप्पणियाँ हम ब्लाग के आगामी अंकों में रखेंगे। कृपया समीक्षा भेजने के साथ समीक्षित पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}

डॉ. उमेश महादोषी
डॉ. भावना के भावपूर्ण हाइकु

   भारत से बाहर रहकर हिन्दी में साहित्य सृजन करने वाले समकालीन रचनाकारों में कई ऊर्जावान रचनाकार हैं। इनमें डॉ. भावना कुँअर ने हाइकु में काफी अच्छी रचनाएं दी हैं। हिन्दी हाइकु की विकास-यात्रा में उनका योगदान आश्वस्त करने वाला है। ‘तारों की चूनर’ उनकी दूसरी किन्तु हाइकू में पहली पुस्तक है। इसमें 146 हाइकू संग्रहीत हैं। विशेष बात यह है कि सुप्रसिद्ध चित्रकार श्री बी. लाल ने प्रत्येक हाइकु का चित्रांकन किया है, जो सम्बन्धित हाइकु के साथ प्रकाशित है। इन चित्रों में चित्रकार ने हाइकु के कथ्य और भाव को पूरी तरह आत्मसात करने की कोशिश की है। कई हाइकु और उसके चित्रांकन को देखकर यह कहना मुश्किल हो जाता है कि हाइकु में चित्र की भावाख्या की गई है या चित्र में हाइकु की!
   सामान्यतः हाइकु में भाव प्रधान होता है, और डॉ. भावना भी मूलतः भावुक कवयित्री हैं, अतः इस संग्रह के भाव पक्ष पर ही बात को केन्द्रित रखना मुझे उचित लग रहा है। डॉ. भावना की भावात्मक ऊर्जा से स्फूर्त उनका प्रकृति-प्रेम इस संग्रह के अधिसंख्यक हाइकुओं में सामने आया है। संग्रह का शीर्षक ही एक प्राकृतिक दृश्य आँखों के सामने उकेर देता है। जिस हाइकु से इस शीर्षक को लिया गया है, उसमें झील का एक मनोहारी चित्र है- ‘दुल्हन झील/तारों की चूनर से/घूँघट काढ़े’। गुलमोहर बेहद खूबसूरत वृक्ष होता है, किसी भी प्रकृति-प्रेमी की तरह भावना जी का उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है। पर उनके लिए यह आकर्षण कुछ विशेष है, तभी वह गुलमोहर को कई हाइकू के केन्द्र में ले आईं हैं। यह लगाव उन्हें भावुकता के चरम पर ले जाता है, जब वह एक खूबसूरत चीज (गुलमोहर) की तुलना दूसरी खूबसूरत चीज (मोर पंख) से करने लग जाती हैं- ‘चारों तरफ/फैले गुलमोहर/मोर पंख से’। भावुकता का एक दूसरा रूप होती है मस्ती, दिशा और दशा की तमाम चिन्ताओं से मुक्त कल्पनालोक में ले जाती है यह, जहाँ हम नई-नई अनुभूतियों के झरनों में नहाकर तरोताजा महसूस करते हैं। यह मस्ती प्रकृति के अनेकों दृश्यों में पूरे अल्हड़पन के साथ समायी मिलेगी। एक ऐसा ही दृश्य देखिए इस हाइकु में- ‘झूमती जाये/मदमस्त सी हवा/किस दिशा में?’
   खेतों में फूली सरसों के बिम्ब कविता की हर विधा में लोकप्रिय हैं। डॉ. भावना ने हाइकु में इसे कुछ इस तरह बाँधा है- ‘खेत है बधू /सरसों है गहने/स्वर्ण के जैसे’। डॉ. भावना के प्रकृति-कोष में चिड़ियों, भंवरों, तितलियों, गिलहरी, मृगछौने से लेकर रात की रानी, चम्पा-चमेली, कमल और बादल, घटा, चांद, सूरज व उसकी किरनों तक के अनेकों पारम्परिक बिम्ब पूरी भाव-ऊर्जा से युक्त होकर भरे पड़े हैं, पर उनकी दृष्टि कुछ नई ज़मीन और ताज़गी को तलाशती भी नजर आती है। अपने ही ताप में तचती धूप के इस बिम्ब के भाव की ताजगी देखिए- ‘सोच रही थी/चिलचिलाती धूप/कहाँ जाऊँ मैं?’। हम मनुष्य अरामतलबी की स्थिति में लेटे-लेटे चाय, कॉफी या कोई अन्य ड्रिंक्स पी सकते हैं, तो अपनी प्यास बुझाने के लिए ऐसी ही आरामतलबी का उपयोग धूप क्यों नहीं कर सकती? एकदम ताजा-आकर्षक बिम्ब है यह- ‘लेटी थी धूप/सागर तट पर/प्यास बुझाने’
   भारत रिश्तों का देश है, परम्पराओं का देश है, तीज-त्योहारों का देश है, अहसासों का देश है....। सो इस देश में जन्मी, पली-बढ़ी, इस देश की मिट्टी से बनी, इस देश के तीज-त्यौहारों में रंगी डॉ. भावना जी दूर-देश युगाण्डा में रहने के लिए पहुँचती हैं, तो इस सबका अहसास यादों की स्वतः बनी पोटली में बंधकर साथ चला जाता है। वहाँ रिश्ते याद आते हैं, साथी-संगी भी याद आते हैं, परम्पराएँ और तीज-त्यौहार याद आते हैं। इन यादों के साथ रचनात्मकता की खुश्बू जुड़ती है तो सृजन के दरवाजे बिना खुले नहीं रहते। सृजन के दरवाजे के अन्दर झाँककर इस हाइकु पर दृष्टि डालिए कि परदेश में होली मनाते मन पर क्या गुजरती है- ‘परदेश में/जब होली मनाई/तू याद आई’। त्यौहारों में घुला होता है अपनापन, त्यौहार ऐसे अवसर लेकर आता है जब हम अपनों से मिलते हैं, अपनेपन में डूबते-उतराते हैं। अपनों से दूर होने पर मन की स्थिति ऐसी हो जाती है कि हल्की सी आहट में भी ऐसे अवसर की झलक दिखाई देने लगती है, जो हमें अपनों और अपनेपन के करीब ले जा सकता है। इस हाइकू में कवयित्री का भावुक मन ऐसी ही स्थिति गुजरता है- ‘हुई आहट/खोला था जब द्वार/मिला त्यौहार’। त्यौहारों की रचनात्मक कल्पना हमें उनकी मूल भावना के और करीब ले जाती है। कहीं न कहीं हम बाह्य दुनियाँ में झाँकते हुए अपने अन्तर में भी झाँक रहे होते हैं। इस साधारण से हाइकु में दीपावली की कल्पना का रचनात्मक भाव है- ‘जगमग है/दियों की कतार से/हरेक कोना’। परदेश में वहाँ की परम्पराएँ हैं, वहाँ का परिवेश है, वहाँ का संगीत है, परन्तु अपनी परम्पराएँ, अपना परिवेश, अपना संगीत याद आये बिना नहीं रहता! मन अपने की ओर भागता है- ‘है डिस्को यहां/छुये जो मन को, वो/भजन कहां?’ यादों के बीच अपनेपन की ओर बार-बार भागता मन कभी-कभी उदास जरूर होता है, पर निराश नहीं होता। शायद इसीलिए वह हवाओं के पँखों पर लिखे सन्देश को पढ़ता है- ‘हवा जो आई/परदेशी लौट आ/संदेशा लाई’ और कल्पनाओं के झुरमुट में उम्मीद लिए बैठे इस हाइकु की भाषा में जवाब देता है- ‘शाम के वक्त/लौटते हैं पंछी भी/आशियाने में’
   युवा मन के कुछ कोने हमेशा उस प्यार के लिए खाली रहते हैं, जिसे कोई हमसफर बनकर ही दे सकता है। प्रेम में पगे कुछेक हाइकु हैं इस संग्रह में। प्रेम की अनुभूति कभी तन-मन महका जाती है- ‘महका गया/मेरा तन-मन ये/तेरा मिलन'। तो कभी उदासी भी दे जाती है- ‘मन उदास/जब तू नहीं पास/है वनवास’
   प्रकृति, प्रवास, अपनापन, तीज-त्यौहार, प्रेम- ये सारी अनुभूतियां भावुक मन की रचात्मकता का पक्ष रखते हैं और कलाकार के मन की गहराई को मापते हैं। लेकिन अन्तस की चेतना को प्रमाणित करती है आसपास के वातावरण में घटने वाली घटनाओं और उनके मानवीय प्रभावों के प्रति संवेदन मन की रचनात्मकता, जिसे साहित्य में सामान्यतः विचार तत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है। यद्यपि हाइकु जैसे लघुकाय छन्द में इस रचनात्मकता को गहन मनन और अभ्यास से ही लाना सम्भव है, तदापि भावना जी ने संवेदन मन की रचनात्मकता को ‘तारों की चूनर’ के कुछ हाइकुओं में अभिव्यक्त किया है। सुनामी के तांडव पर एक हाइकु देखें- ’नाचती मौत/बेबसों के घर में/रूप सुनामी’। रोज कमाने-खाने वालों की स्थिति कई बार विशेषतः सर्दियों में कई तरह से पीड़ादायी हो जाती है। धूप नहीं निकलती तो चूल्हा जलना मुश्किल हो जाता है- ‘न जला चूल्हा/धूप है नदारद/गीली लकड़ी’। दिन तो किसी तरह कट जाए, पर रात कैसे कटे? विवशता को अभिव्यक्त करता है यह बिम्ब- ‘फटी रजाई/ये मत पूछो कैसे/सर्दी बिताई’। औद्योगिकीकरण के दुष्परिणाम पूरी मानव जाति को झेलने हैं। कारखानों से निकलता धुँआ हमारे स्वास्थय को भी डसेगा और पर्यावरण-सन्तुलन को भी निगल जायेगा। हाइकु की कवयित्री इन शब्दों में चेतावनी देती है- ‘आसमान में/काले सर्प सा धुआं/फन फैलाए’। क्या देश और क्या परदेश, व्यवस्था का चरित्र कमोवेश एक जैसा होता है; लेकिन परदेश में यह कुछ ज्यादा पीड़ा देता है, क्योंकि वहाँ हमारी परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ दोनों अलग होती हैं। इस हाइकु में यही पीड़ा है- ‘देश बेगाना/लूटती पुलिस भी/कैसा जमाना’
   साहित्य की हर विधा में भाव, विचार और तकनीक का समन्वित संगम कहीं अधिक आकर्षित करता है। हाइकु काव्य में ऐसे आकर्षक कई उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, इस संग्रह में भी हैं।
  ये कुछ पक्ष हैं, कई और पक्ष भी हो सकते हैं। दरअसल रचनाकार की दृष्टि से हाइकु की लघु काया में काफी विस्तार होता है, विस्तार पाठक की दृष्टि से भी होता है, पर पाठक की दृष्टि से कुछ सीमाएं भी होती हैं। उन सीमाओं के बावजूद पाठकों के पढ़ने के लिए एक अच्छा संग्रह है, अपनी-अपनी दृष्टि से पढ़ेंगे तो बहुत कुछ मिलेगा इसमें। मेरी लेखकीय सीमाओं के कारण कई बेहद अच्छे उदाहरण इस चर्चा में उद्धृत नहीं हो पाये हैं। हाँ, सृजन से सकारात्मक दिशाबोध की अपेक्षा होती है, शायद इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर डा. भावना ने यह हाइकु संग्रह में शामिल किया होगा- ‘चाहो अगर/छूना असमान को/फैलाओ पंख’
तारों की चूनर (हाइकु-संग्रह) :  डॉ भावना कुँअर। प्रकाशक : शोभना प्रकाशन, 123-ए, सुन्दर अपार्टमेन्ट, जी.एच.10, नई दिल्ली-87 , पृष्ठ: 160 (सज़िल्द), मूल्य: रू 150/- ; संस्करण: 2007।
  • एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड


डॉ. उमेश महादोषी
जनक छन्द की सही विवेचना
जनक छन्द अरा और जनक नागरी लिपियों के प्रणेता और आचार्य डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ द्वारा प्रणीत है और इसकी रचना एवं शिल्प आदि के बारे में नियम भी अराज जी द्वारा ही निर्धारित किये गए हैं। पिछले दस वर्ष में शताधिक कवियों ने जनक छन्द में पर्याप्त संख्या में रचनाएं दी हैं। जनक छन्द में कई तरह के प्रयोग भी हुए हैं। इस सबको ध्यान में रखकर जनक छन्द पर विश्लेषण, विवेचन, समीक्षा-समालोचना सम्बन्धी कार्य भी जरूरी हो जाता है। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी ने वर्ष 2006 में अराज जी के तमाम कार्य को ध्यान में रखकर जनक छन्द का शोधपरक विवेचन किया, जो पुस्तक रूप में पाठकों के समक्ष आया है। इस विवेचन में उन्होंने जनक छन्द के उद्भव और विकास पर अराज जी के कार्य और प्रतिपादनाओं के सन्दर्भ में प्रकाश तो डाला ही है, जनक छन्द के नियमों और उसमें हुए कई प्रयोगों की समालोचनात्मक समीक्षा भी की है। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी स्वयं जनक छन्द के उत्क्रष्ट कवि हैं, इसलिए उन्होंने इस विवेचन में कई जगह आदर्श स्थितियों को लेकर अपनी व्यवस्था भी दी है और उसके समर्थन में अपनी रचनाओं के अच्छे उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। पुस्तक को छः अध्यायों में विभक्त करके इस त्रिपदिक छन्द के अलग-अलग पक्ष पर रौशनी डाली गयी है।
   पहले अध्याय में त्रिपदिक छन्द परम्परा का उल्लेख गायत्री छन्द से लेकर उष्णिक, ककुप्, गंगी, माहिया (टप्पा), हायकू (लेखक ने हाइकु के लिए चार वर्तनियों के प्रचलन का उल्लेख करते हुए इसी वर्तनी का उपयोग किया है) और अन्त में जनक छन्द तक किया है। इस अध्याय से पाठक समझ सकते हैं कि वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के त्रिपदिक छन्द हमारी छन्द परम्परा में शामिल हैं और जनक छन्द इस परम्परा के अनुरूप एक स्वाभाविक छन्द है।
   दूसरा अध्याय जनक छन्द के उद्भव, उसकी संरचना तथा विकास पर केन्द्रित है। जनक छन्द कैसे और किस मनः स्थिति में 03 सितम्बर 2001 को अराज जी के मुख से प्रस्फुटित हुआ, किस तरह उसकी संरचना मात्राओं और लय के सन्दर्भ में दोहे के प्रथम चरण पर आधारित है तथा किस तरह के प्रयास इस छन्द के विकास और लोकप्रियता के लिए किए गये, इस सबकी चर्चा इस अध्याय में की गई है। जनक छन्द के विभिन्न संकलनों और उनमें शामिल जनक-छन्द कवियों की चर्चा भी इस अध्याय में है। ऐतिहासिक महत्व तो है ही इस अध्याय का, जनक छन्द से अपरिचित लोगों के लिए इस छन्द से परिचित होने की दृष्टि से भी यह अध्याय महत्वपूर्ण है।
   तीसरे अध्याय में जनक छन्द के विभिन्न भेदों की चर्चा की गई है। इसमें अराज जी के अनुप्रास और लय आधारित वर्गीकरणों के साथ डॉ. महेन्द्रदत्त शर्मा ‘दीप’ का जनक छन्द वर्गीकरण भी दिया गया है। इसी के साथ जनक छन्द के समरूप वर्तमान में प्रचलित कुछ अन्य छन्दों यथा- वृद्ध जनक छन्द, सुगति छन्द, पौन सोरठा छन्द आदि की परिचयात्मक चर्चा भी की गई है। जहां जरूरी समझा है, इस अध्याय में डॉ. गौतम ने अपनी समीक्षात्मक व्यवस्था भी दी है।
   चौथे अध्याय में काव्य की अन्य विधाओं, विशेष रूप से ग़ज़ल और गीत में जनक छन्द के प्रयोग पर चर्चा और उसकी समीक्षा शामिल है। इस चर्चा में डॉ. गौतम जी ने उक्त प्रयोगों से सम्बन्धित अराज जी के नियमों और व्यवस्थाओं में कुछ खामियों को भी दर्शाया है और उनके समाधान भी स्वरचित रचनाओं के उदाहरण देकर प्रस्तुत किए हैं। यह अध्याय पाठकों और जनक छन्द के कवियों को इस छन्द के विविधि प्रयोगों के सन्दर्भ में सावधान भी करता है और नई सम्भावनाओं की ओर इंगित भी।
   पांचवा अध्याय सबसे महत्वपूर्ण है। ‘जनक छन्द का अंतर्बाह्य’ शीर्षक इस अध्याय में जनक छन्द के कथ्य और रचना-शिल्प की विवेचना की गई है। कथ्य पर उदाहरणों सहित विस्त्रित नोट है, वहीं रचना शिल्प के अन्य अवयवों यथा- भाषा, लय, तुक विधान आदि का समालोचनात्मक विवेचन शामिल है। यह अध्याय जनक छन्द के रचनाकारों का ध्यान उनके लेखन में सम्भावित कमजोरियों की ओर आकर्षित करता है और उनके लिए मार्गदर्शन भी उपलब्ध करवाता है।
   अन्तिम अध्याय में जनक छन्द और उसके माध्यम से त्रिपदिक छन्दों की भाविष्यिक सम्भावनाओं का परीक्षण किया है। उन्होंने एक ओर जनक छन्द के रचनाकारों को ‘भरती के शब्दो’ के प्रयोग की ओर आगाह किया है, तो दूसरी ओर जनक छन्द के बहाने हिन्दी कवियों में छान्दस कविता के प्रति पुनः जाग्रत हुई चेतना का उल्लेख भी किया है।
   निश्चिय ही यह पुस्तक जनक छन्द की आरम्भिक किन्तु सही विवेचना करती है और हिन्दी कविता को पुनः छन्द परम्परा की ओर ले जाने की जनक छन्द की सम्भावनाओं को सामने रखती है। चूंकि यह विवेचन जनक छन्द के मात्र साढ़े पांच वर्ष के अल्पकाल पर ही आधारित है, इसलिए इसकी अपनी सीमाएं हो सकती हैं। पर इस प्रकार के विवेचन जनक छन्द को आगे बढ़ाने और उसकी समग्र सम्भावनाओं और सामर्थ्य को सामने रखने की दृष्टि से सदैव महत्वपूर्ण होते हैं।

जनक छन्द : एक शोधपरक विवेचन : डॉ ब्रह्मजीत गौतम, प्रकाशक :  अनुराधा प्रकाशन, 1193, पंखा रोड, नांगल राया,(डी2ए, जनकपुरी), नई दिल्ली-46। पृष्ठ : 64 , मूल्य: रू 30/- ; संस्करण : 2006।
  • एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार (उत्तराखण्ड)

सुरेश पंडित
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाजे बयाँ और
    सच है कि हर इन्सान, हर शायर, हर लेखक अपने आप में अलग होता है, लेकिन एक सचाई यह भी है कि वह अलग नहीं भी होता। जो सम्बन्ध, जो समाज, जो पारिवारिक दायरे एक कवि या लेखक के होते हैं, लगभग वैसे ही दूसरों के भी होते हैं। लगभग एक से परिवेष में रहते हुए जो अनुभव, अहसास या दृष्टिकोण  किसी एक लेखक के हो सकते हैं वे किसी दूसरे के भी हो सकते हैं। इन अनुभवों या अहसासों को कविता में उतारने के ढंग अवश्य जुदा-जुदा होंगे। इसीलिए ग़ालिब अपने अन्दाजे़ बयां को और ही तरह का ठहराते हैं। इसे उनका बड़बोलापन कहा जा सकता है। लेकिन सचाई यही है। ग़ालिब जानते थे कि दो लोगों के अहसास कभी कभार  एक जैसे हो सकते हैं। लेकिन दोनों के कहने का ढंग कदापि एक जैसा नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये काव्य में इसकी अभिव्यक्ति सदा से होती आई है लेकिन हर कवि की कविता में इसकी प्रस्तुति अलग ही ढंग से हुई है। इसीलिये पाठक अलग-अलग तरह से आस्वाद ग्रहण करता है।
    उद्भ्रान्त की कविताओं की अपनी एक अलग दुनियां है। वे प्रचलित मिथकों को सिरे से खारिज नहीं करते बल्कि उन्हें समकालीन परिवेश में उनकी उपस्थिति किस रूप में हो सकती है इसकी खोज करते हैं। उनका इसी वर्ष में प्रकाशित बृहत्काय कविता संकलन ‘अस्ति’ अपने आप में कुल 476 पृष्ठ समेटे हुए है। यदि रचनावलियों और क्लासिक महाकाव्यों को छोड़ दें तो मुझे लगता है इतना बड़ा संकलन आज तक किसी कवि का नहीं आया होगा। ‘अस्ति’ के पहले खण्ड को कवि ने शीर्षक दिया है- ‘जैसे सपना एक चकमक पत्थर है।’ सपना देखना एक स्वाभाविक क्रिया है। लेकिन कभी-कभी मनुष्य कोई ऐसा सपना भी देखता है जो उसकी ज़िन्दगी को ही बदल देता है। इसीलिये माना जाता है कि हर परिवर्तन को भी व्यक्ति प्रथमावस्था में एक स्वप्न के रूप में देखता है। उसका सपना जब यथार्थ से टकराता है तो चिनगारी छोड़ता है। यह चिनगारी उसे तब तक चैन नहीं लेने देती जब तक वह स्थितियों में बदलाव लाने की लालसा पूरी नहीं कर लेता या यह भी हो सकता है कि वह अधूरी लालसा ही लिये दृश्य पटल से हट जाये। 140 कविताओं वाला यह खण्ड जहां माँ, दादाजी, पतंग, आज़ादी, पेपरवेट, पिता, टॉर्च, मोमबत्ती, कर्ज़, जेल, आत्महत्या और बचपन जैसे सामान्य विषयों पर कवितायें लिये हुए है वहीं प्रेम, मृत्यु, मुक्ति, उड़नतश्तरी, ब्रह्मांड, ब्लैकहोल, समय, बोधिवृक्ष, जीवन, प्रकृति आदि में कवि की दार्शनिक सोच की झलक मिलती है। मनुष्य जीवन के बाह्य और अन्तरंग को उन्होंने विस्तार और गहराई तक पैठ कर देखा है। इसलिये उनके वर्णन से सूक्ष्मातिसूक्ष्म डिटेल भी बच नहीं पाई है। इस खण्ड की शुरुआत ही इसके शीर्षक वाक्य से होती है। इसकी व्याख्या वे इस प्रकार करते हैं-‘जैसे सपना/एक चकमक पत्थर है/संघर्ष की तीली से रगड़ खा/भीतर की आग को/विकीर्णित करता/फैला देता/समस्त दिशाओं में/एक अद्भुत/और सर्वथा अछूता/प्रकाश लोक’। समय की यह व्याख्या भारतीय कालगणना को अलग रूप में प्रस्तुत करती है।
    आध्ुानिक उदार अर्थव्यवस्था ने जिस तरह मानव जाति का वर्तमान और भविष्य बाजार के हाथों गिरवी रख दिया है, उससे एक ऐसी प्रतियोगितात्मक संस्कृति का विकास हुआ है जो शक्तिमत्ता को ही जीवन की शर्त मानती है। प्रतियोगिता की यह एक अन्धी दौड़ है। इसमें निर्बल, निरीह को जीने का अधिकार  नहीं रहा है। ऐसे लोग या तो हाशिये की और धकेले जा रहे हैं या उन्हें आत्महत्या के लिये विवश किया जा रहा है। आश्चर्य है कि इस तरह की मौत को आत्महत्या की संज्ञा दी जा रही है जबकि वह सरासर बाजारवादी व्यवस्था द्वारा की जाने वाली हत्या है। कवि कहता है-‘उसने आत्महत्या की/सीलिंग फैन से लटककर/परीक्षा की तैयारी नहीं थी पूरी/और जीवन की परीक्षा में/असपफल होने का भय था उसे’।  बाजार की मांग के अनुरूप बदलती शिक्षा पद्धति में न केवल असपफल होना बल्कि कम नम्बरों से पास होना तक भयावह हो गया है कि उससे मुक्ति मौत को गले लगाने के अतिरिक्त कहीं नहीं मिल पाती। लोगों को क्रूर सच का ज्ञान करा दिया गया है कि शिक्षा व्यवस्था द्वारा निर्धारित परीक्षा में असपफल होना या अच्छे अंकों से पास न होना जीवन की परीक्षा में भी असपफल हो जाना है।
    इस बर्बर व्यवस्था ने व्यक्ति को जीवन के जिस संग्राम में भाग लेने के लिये मजबूर कर दिया है उसे उसी के हथियारों से जीता जा सकता है। इसमें न्याय-नैतिकता के लिये कोई स्थान नहीं है। इसमें जीत उसी की होती है जो क़ामयाब होता है। चाहे वह क़ामयाबी किसी भी तरह के छलकपट से क्यों न प्राप्त की गई हो। स्कूल जाते एक बच्चे ने-‘जीवन में संघर्ष का/पहला सबक़ पाया/और कड़ी धूप में आग बरसाते/सूर्य से बचने की सीमा से गुज़रते ही/किनारे खड़ी बबूल की/घनी झाड़ियों की ओट को ही/बनाया साया/फिर उसी/काँटे को तोड़ पाँव में/ अन्दर तक धंसे शूल को/बाहर निकाला’।  काँटे से काँटा निकालना ही आज के जीवन की समस्याओं का चरम समाधान है।
   दूसरे खण्ड को लेखक ने ‘उलट बाँसी’ का नाम दिया है और इसकी शुरुआत भी इसी शीर्षक की कविता से की गई है। लेकिन इस खण्ड में अयोध्या को लेकर दी गई सात कवितायें विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। दरअसल पिछली सदी के अन्तिम दशक में हुआ बाबरी मस्जिद का ध्वंस और राम जन्मभूमि की पुनः प्रतिष्ठा का प्रयास एक ऐसी दुखद घटना है जिसने हमारे धर्म निरपेक्ष राष्ट्रीय चरित्र और सह अस्तित्त्व को मानने वाली संस्कृति को इस तरह कलंकित किया है कि हम दुनियां के सामने अपनी गौरवपूर्ण थाती को गँवा कर शर्मसार होने के लिये विवश हो गये हैं। जो गरिमा हमने सदियों से सम्भाल कर रखी थी, जिससे सारी दुनियां के लोग ईर्ष्या करते थे, उसे हमने एक दिन के चन्द घण्टों में धूल-धूसरित करके  रख दिया है। और अब भी इसे अपने ही लोग अपने धर्म की असाधरण विजय के रूप में प्रशंसित करने में लगे हैं। इस क्रम की पहली ही कविता ‘बिंब’ की ये पक्तियां दृष्टव्य हैं- ‘शब्द अयोध्या/पड़ता कान में तो/मस्तिष्क का कम्प्यूटर/अपनी स्मृति में/तत्क्षण जो बिंब/उपस्थिति करता आजकल/क्या है वैसा ही/जो कि कौंध जाता था/एक डेढ़ दशक पूर्व/भारत के किसी भी/नागरिक के मन में’। इस बिंब को खंडित किया है उन लोगों ने जो सांप्रदायिकता की आग सुलगाकर अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने के लिये प्रयत्नरत हैं। राम के वन गमन को कवि प्रचलित अर्थों में नहीं देखता। इसे वह राम की एक ऐसी यात्रा मानता है जो वनवासी आदिम जातियों के साथ वहां विचरने वाले पशु पक्षियों और वनस्पतियों से संवाद स्थापित करने और उनके प्रति अपनी संवेदना विकसित करने के लिये की गयी थी। सीता की वह चिरन्तन छवि जो अब भी लोगों के मन में बसी है, और जिसमें उन्हें एक आदर्श स्त्री के रूप में दिखाया गया है, उसमें कवि की ऐसी नारी की झलक देखता है जो अपनी पहचान बनाने के लिये संघर्ष कर रही है-‘सीता का/कनक महल में उभरा हुआ रूप/आज की युवा कर्मठ/नारी में प्रतिबिंबत होकर/काल की तराजू पर/न्याय की कसौटी को कसता हुआ/एक नई क्रांति का/उद्घोष कर रहा है’।  अपनी ‘सीता रसोई’ कविता में कवि रसोई में प्रयुक्त सभी उपकरणों में सीता के जीवन की विभिन्न झांकियां देखता है। और अन्त में वह रामजन्म भूमि के आसपास तैनात सैन्य शक्ति को देखकर सोचता है कि क्या वे राम, जिन्होंने परम पराक्रमी राक्षसों को बिना विशेष तैयारी के मौत के घाट उतार दिया था, आज इतने निःशक्त हो गये हैं कि उन्हें इन बन्दूकधारी जवानों को अपना रक्षा कवच बनाना पड़ा है? आखिर उन्हें किस का डर है- ‘अयोध्या में/मैंने देखा/दोनों समुदायों में/वैमनस्य/प्रीति देखी सच्ची’।  वास्तविकता यही है कि अयोध्यावासियों में रामजन्मभूमि को लेकर किसी प्रकार का न तो पहले विवाद था न आज है। यह विवाद तो अयोध्या के बाहर रहने वाले धर्मान्ध लोगों ने पैदा किया है और उसे तब तक बनाये रखना चाहते हैं जब तक उनके स्वार्थ पूरे नहीं होते। आज भी यदि रामजन्मभूमि को अयोध्यावासियों के ही हवाले कर दिया जाय तो इस आरोपित समस्या का स्वतः समाधान हो सकता है।
    तीसरा खण्ड है ‘नींद में जीवन’। लेकिन इसकी शुरुआत इस तरह के शीर्षक वाली कविता से नहीं हुई है। इसमें कुल 148 कवितायें समाहित हैं। इनमें ‘वर्जित फल’, ‘किराये का मकान’, ‘तवायफ’, ‘नये घर का उपेक्षित कोना’, ‘नास्तिक’, ‘रक्त सम्बन्ध’, ‘बाबा मार्क्स: गान्धी बाबा’, ‘नींद में जीवन’, और ‘अर्थ का टिमटिमाता ब्राह्मांड’ आदि कई कवितायें पठनीय हैं। लेकिन यहां मैं ‘पहल’ में छपी कविता ‘बकरामण्डी’ पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा। ईद का त्यौहार मनाने के लिये सैकड़ों बकरे सजा-धजा कर लाये गये हैं। इनके मालिक और खरीददार दोनों ही इनके मोल भाव में लगे हैं। मालिक चाहता है उसे अपने बकरे का अधिक से अधिक दाम मिले जबकि खरीददार की कोशिश है कि कम से कम दाम में उसे अधिक हृष्ट-पुष्ट बकरा मिल जाये। पहले व्यक्ति को अपना बकरा बेचकर अपनी रोटी का जुगाड़ करना है जबकि दूसरा इसका खुद स्वाद लेना चाहता है और अपने लोगों को भी दिलाना चाहता है। लेकिन मासूम बकरे नहीं जानते कि उनके साथ क्या होने वाला है। उन्हें अच्छा चारा खिलाया गया है, नहला धुलाकर सजाया गया है तो इसका मतलब है आज का दिन देखने को नहीं मिलेगा। उधर बेचने वाला सोच रहा है- ‘क्या अपने बकरे की क़ीमत/उसको इतनी मिल पायेगी/कि वह इसी मण्डी से/कम क़ीमत वाला बकरा एक/अपने बीबी-बच्चों के वास्ते/खरीद सकेगा और/यों कुर्बानी दे सकेगा/अपने हिस्से की’।  इस तरह यह कविता समाज की उन विषम स्थितियों से परदा उठाती है जिनमें कुछ लोग दूसरों की क़ुर्बानियों से अपनी मौज मस्ती करते हैं।
    संक्षेप में जो कुछ ऊपर लिखा गया है वह तो एक ट्रेलर मात्रा है, असली स्वाद तो आप तब पायेंगे जब पुस्तक की शेष कविताओं को भी पढ़ेंगे।
    ‘अस्ति’   (कविता संग्रह)  :  उद्भ्रांत। प्रकाशक  :  नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, पृष्ठ: 700, मूल्य: 750 रुपये मात्र।
  •     383, स्कीम नं. 2, लाजपत नगर, अलवर-301001(राज.)

9 टिप्‍पणियां:

  1. अविराम का ब्लाग भीड़ से हटकर अच्छी साहित्यिक पत्रिका का आदर्श प्रस्तुत करत है । उमेश महादोषी जी का परिश्रम एवं चयन सराहनीय है ।

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  2. aviram patrika ne sahitya me apni alag pahchan banai hai .umesh ji ki mehnat patrika me puri tarah se dikhti hai.
    aapko aur aapki team ko bahut bahut badhai.
    saader
    rachana

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  3. न केवल ‘अविराम’ पत्रिका, बल्कि इस ब्लॉग में भी उमेश जी की मेहनत, साहित्य के प्रति उनका समर्पण पूरी तौर से नज़र आता है, जो निःसन्देह ही प्रशंसनीय है । मेरी शुभकामनाएँ और बधाई स्वीकारें...।

    प्रियंका

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  4. 'अविराम'उच्च कोटि की पत्रिका लगी|सभी रचनाएँ स्तरीय हैं|अच्छी साहित्यिक पत्रिका के लिए उमेश जी और टीम के सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं|
    सादर
    ऋता

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  5. bahut sundar sanyojan kiya hai. ptrika bhi mil gayi hai. uttarottar vikas hota ja raha hai. patrika ki samgri bhi or kalevar bhi behatar huaa. yah sampadkeey kaushal ka parichayak hai. bahut-bahut badhai......

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  6. डा. रमा द्विवेदी

    `अविराम' पत्रिका की सम्पूर्ण सामग्री स्तरीय, प्रशंसनीय एवं संग्रहनीय है | बहुत सुन्दर संयोजन किया गया है ...डा. उमेश जी एवं उनकी टीम को बधाई एवं शुभकामनाएं

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  7. मनोरंजक एवं रुचिकर पठनीय सामग्री मुफ्त में यहाँ मिले तो कोई अन्यत्र कहाँ और कैसे जाएगा भला!

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  8. मनोरंजक एवं रुचिकर पठनीय सामग्री मुफ्त में यहाँ मिले तो कोई अन्यत्र कहाँ और कैसे जाएगा भला!

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  9. मनोरंजक एवं रुचिकर पठनीय सामग्री यदि यहाँ मुफ्त में उपलब्ध हो तो कोई अन्यत्र कहाँ और कैसे जाएगा भला!

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